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नैतिक प्रमाद और आचारांग : ८७
है । वे न इस पार आ सकते हैं और न उस पार जा सकते हैं । ऐसे आज्ञा या धर्म के विरुद्ध चलने वाले नैतिक (संयम) पथ भ्रष्ट साधक को अधर्मार्थी, अज्ञानी, आरम्भार्थी आदि शब्दों से सम्बोधित करते हुए जिनप्रतिपादित धर्म की उपेक्षा करने वाला कहा गया है । २५ पुनः धर्म-मार्गं एवं नैतिक आचरण में स्थिर करने के लिए यथोचित बोध के द्वारा गुरु, शिष्य को अनुशासित करते हुए कहते हैं कि संयम भ्रष्टता ( अनैतिककर्मों) के अनिष्टकर परिणामों को भलीभाँति जानकर पण्डित, मर्यादाशील एवं निष्ठितार्थं वीर साधक को सदा आगमों में विहित साधना-पथ के अनुरूप संयम मार्ग में पुरुषार्थं करना चाहिए । २६
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि आचारांग में बाह्य विधानवाद की धारणा मान्य रही है । तीर्थंकरोपदिष्ट विधि-निषेध मूलक विधानों को नैतिकता एवं अनैतिकता का मानदण्ड माना गया है । फिर भी इसे अन्तिम रूप से नैतिक मूल्यांकन का प्रमापक नहीं माना जा
सकता ।
बाह्य विधानवाद की समीक्षा :
I
भारतीय एवं पाश्चात्य दोनों परम्पराओं में बाह्य विधानवाद की मान्यता या स्वीकृति है, किन्तु इन बाह्य नियमों को हो अन्तिम रूप से नैतिकता की कसौटी नहीं माना गया है । कभी-कभी बाह्य नियम नैतिक विकास में बाधक होते हैं । साधक - जीवन की प्रगति के लिए उपयोगी सिद्ध नहीं होते, व्यावहारिक जीवन की कठिनाइयों को सुलझा नहीं पाते और जनसामान्य को अन्ध-विश्वासों, रूढिप्रियता, थोथी आस्थाओं एवं विश्वासों से जकड़ देते हैं ।
बाह्य आदेश 'करना चाहिए' के बजाय ' करना होगा' की सृष्टि करता है । वह अन्दर की बाध्यता न होकर बाह्य बाध्यता या आरोपित बाध्यता होती है और आरोपित बाध्यता से फलित कोई भी कर्म नैतिक नहीं कहा जा सकता । वे बाह्य आदेश अधिकांशतः स्वर्ग में पुरस्कार के प्रलोभन एवं नर्क में दण्ड के भय से युक्त होते हैं । यदि पुरस्कार एवं भय की भावना ही नैतिकता की प्रवर्त्तक शक्तियाँ हैं, तो फिर ऐसी स्थिति में किये हुए कर्म की कोई नैतिकता नहीं रह जाती है। वस्तुतः नैतिक नियम बाह्यारोपित न होकर स्वतःप्रसूत होते हैं । कर्म का औचित्य केवल बाह्य नियमों पर ही निर्भर नहीं करता । यदि बाह्य विधानवाद को ही सब कुछ मान लिया गया तो फिर नैतिक चेतना का कोई मूल्य ही नहीं रह जायगा । हाँ, ईश्वर, बुद्ध या जिनोपदिष्ट वचन या आदेश हमारा पथ प्रदर्शन करते हैं । आत्म जागरण की प्रेरणा भी देते हैं ।
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