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८८: आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन
बाह्य विधान फिर चाहे वे ईश्वर या जिन प्रसूत ही क्यों न हों, नैतिकता के शरीर हो सकते हैं, नैतिकता की आत्मा नहीं। प्रारम्भिक स्तर पर इनकी उपयोगिता अवश्य है, क्योंकि ये साधना की भूमिका को पुष्ट करते हैं। ये नैतिक मानण्ड के अन्तिम आधार नहीं बनते । यह सम्भव है कि इन नियमों का अक्षरशः पालन करते हुए भी मनुष्य की नैतिक चेतना प्रसुप्त रहे। इनमें नैतिक आचरण यान्त्रिक होता है। आचारांग के परिप्रेक्ष्य में देखें तो लगता है कि उसमें बाह्य विधानवाद के सम्बन्ध में कुछ संकेत मिलते हैं। उसमें तीर्थंकरोपदिष्ट विधानों की चर्चा अवश्य है। साधना की दष्टि से उन विधानों के पालन को नैतिक जीवन का अनिवार्य अंग भी माना गया है। साधना-मार्ग में प्रविष्ट प्रारम्भिक श्रेणी के साधकों के लिए वीतराग-आज्ञा ( आदेशों ) का पालन अत्यावश्यक एवं उपयोगी है, लेकिन निष्ठारहित एवं विवेकहीनता से उन नियमों का पालन करने से कोई भी साधक नैतिक नहीं बन जाता । उन नियमों या साधना के प्रति जीवनपर्यन्त हमारी पूरी निष्ठा बने रहना भी आवश्यक है। आचारांग२७ में इसी बात की पुष्टि की गई है, क्योंकि श्रद्धा एवं प्रज्ञा के प्रकाश में सम्पादित कर्म या आचरण ही नैतिक होगा। इसका यह अर्थ नहीं कि प्रबुद्ध साधकों के लिए उन नियमों का पालन बिल्कुल निरर्थक है । विवेक दृष्टि सम्पन्न साधकों के लिए भी आदेशों के पालन की आवश्यकता बनी रहती है। अन्तदृष्टि जाग जाने के बाद की जाने वाली संयम-साधना में इन नियमों का पालन अपेक्षित होता है, किन्तु तब वे वाह्य आरोपित नहीं रह जाते हैं, अपितु अपनी ही अन्तरात्मा से प्रसूत होते या, अनुभवित होते हैं । इनका पालन तो होता है किन्तु 'बुद्ध' या 'जिन' के आदेश के रूप में नहीं, अपितु अन्तरात्मा के आदेश के रूप में। ___इस सन्दर्भ में आचारांग में स्पष्ट रूप से यह प्रश्न उठाया गया है कि क्या जो साधक दूसरों की आलोचना से भयभीत होकर पापकर्म नहीं करता है, उसे मुनि कहा जा सकता है ? इसना समाधान करते हुए कहा गया है कि अन्तरात्मा के समुज्ज्वल प्रकाश में व्यावहारिक नियमों का पालन करना ही मुनित्व है क्योंकि साधक की समता मुनित्व ( नैतिकता ) का आधार है ।२८
___ इस प्रकार हम कह सकते हैं कि नैतिकता का आधार बाह्य नियम नहीं, बल्कि साधक की अन्तरात्मा है। जब तक अन्तःकरण पवित्र नहीं
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