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________________ चतुर्थ अध्याय नैतिक प्रमापक और आचांराग नैतिक प्रमापक-सिद्धान्त : नैतिक मानदण्ड नैतिक चेतना के विकास का परिणाम है । म्योरहेड के अनुसार नैतिक चेतना के विकास की तीन अवस्थाएँ हैं (१) बाह्य नियम-प्रथम अवस्था में बाह्य नियमों द्वारा व्यवहार का नियंत्रण होता है। नैतिक-निर्णय इन्हीं नियमों के आधार पर दिये जाते हैं। ये नियमावलियाँ प्रायः विधि-निषेधमलक होती हैं। बाह्य नियमों का युग रीति-रिवाजों या प्रचलित नैतिकता का युग था, तब नियम और प्रचलन से निर्देशित आचरण, नैतिक आचरण माना जाता था। (२) आन्तरिक नियम-नैतिक चेतना के विकास की दूसरी अवस्था में बाह्य नियमों का स्थान आन्तरिक नियम ले लेते हैं। इस अवस्था में मनुष्य के नैतिक निर्णयों की कसौटी, आन्तरिक नियम होते हैं। बाह्य आदेश के बन्धन से वह मुक्त हो जाता है । वैसे, इस आन्तरिक प्रमापक को भी विधानवाद कहा जा सकता है, क्योंकि यह आन्तरिक विधान या नियम पर ही बल देता है। (३) साध्य या उद्देश्यमूलक नियम-नैतिक जागृति की तृतीय अवस्था में विधिमूलक नैतिकता का स्थान नैतिक मानदण्ड विषयक एक नवीन विचार ग्रहण कर लेता है। अब उद्देश्य, प्रयोजन या साध्य को ध्यान में रखकर नियम बनाए जाने लगे हैं । इस प्रकार विधानवाद के स्थान पर साध्यवाद अपनाया जाता है अर्थात् वैधानिक नीति के स्थान पर साध्यमूलक नीति आ जाती है। नैतिक निर्णय उन कर्मों पर दिया जाता है, जिन्हें बुद्धिजीवी वर्ग स्वतंत्रतापूर्वक करता है । नैतिक निर्णय का विषय स्वेच्छाकृत कर्म है । स्वेच्छाकृत कर्म निश्चित हो जाने पर प्रश्न यह उठता है कि वह कौन सा प्रमापक है जिसके आधार पर कर्मों को नैतिक या अनैतिक कहते हैं या उनके औचित्य-अनौचित्य का निर्णय देते हैं। यह आधार हैनैतिकता का मानदण्ड । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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