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नैतिकता की मौलिक समस्याएँ और आचारांग : ७५
३. श्री उपाध्याय यशोविजय जी, अध्यात्मसार, केशरबाई ज्ञानभण्डार, स्थापक
संघवी नगीनदास करमचन्द, प्रथम आवृत्ति , वि० सं० १९९४,
अधिकार १८. ४. श्री भद्रबाहु स्वामी, ओघनियुक्ति, द्रोणाचार्यकृत वृत्तिसहित, प्रका०
श्रीमद्विजयदानसूरि जैन ग्रन्थमाला, गोपीपुरा, सूरत, सन् १९५७,५३. ५. संपा० श्रीजुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर" योगसारप्राभृत, श्री आचार्य
अमितगति, भारतीय ज्ञानपीठ दुर्गाकुण्ड मार्ग वाराणसी-५, प्रथम
संस्करण सन् १९६८, ६/१८. ६. हरिभद्रसूरि, उपदेशपद टीका-मुनिचन्द्रसूरि, श्रीमुक्तिकमलजैन मोहनमाला,
बड़ोदरा, पुष्प १९, सन् १९२३,७७८. ७. आचाराङ्ग टी० १/४/२. ८. श्रीजिनदासगणिमहत्तर, उत्तराध्ययनचणि, श्रीऋषभदेवजी केशरीमलजी
श्वेताम्बर संस्था रतलाम, १९३३, अध्ययन २३. ९. श्री हरिभद्रसूरि, अष्टकप्रकरण, श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, प्रथम
आवृत्ति, सन् १९४१, टीका २५/५. १०. उमास्वाति, प्रशमरतिप्रकरण, श्रीपरमश्रुतप्रभावक मण्डल, जौहरी बाजार,
बम्बई-२, प्रथम आवृत्ति, १९५०, अधि० ८/१४५-४६. ११. महाभारत ( शान्तिपर्व ), ३३/३२,६३/९९,२५९/८-१७-१८. १२. गीता, १७/२०. १३. बालगंगाधर तिलक, गीता-रहस्य, अनु० माधवराव सप्रे रामचन्द्र बलवन्त
तिलक, नारायणपेठ, पुणे, सन् १९३३, प्रकरण २. विशुद्धिमग्ग, अनु० भिक्षुधर्मरक्षित, प्रका० महाबोधिसभा, सारनाथ,
वाराणसी, प्रथम संस्करण, सन् १९५६, ४/६६. १५. लिवाई अथन खण्ड-२ अध्याय २७, पृ० १३ उद्धृत डा० सागरमल जैन,
जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन भाग-१,
प्राकृत भारती, जयपुर, १९८१, पृ० ९. १६. जान स्तुअर्टमिल, युटिलीटेरिअनिज्म अ० ५, पृ० ९५. १७. जॉन डिवी, नैतिक जीवन के सिद्धान्त, आत्माराम एण्ड सन्स देहली, सन्
१९६३, पृ० ५९ तथा टी० एच ० हिल, कण्टेम्प्रेरी एथिकल, पृ० १६३. १८. एफ० एच० ब्रडले, एथिकल स्टडीज, आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रस, सन्
१९३५, पृ० १८९ -१९६ १९. जे अईया, जे य पडुप्पन्ना जे य आगमिस्सा अरहंता, भगवंतो ते सव्वे
एव मा इक्खंति, एवं भासंति एवं पण्णविति एवं परूविति-सव्वे पाणां
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