SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७४ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन देशों में समभाव की प्रधानता रहती है । समदर्शी होने के कारण उसके मन में किसी के प्रति कोई भेद नहीं होता । आचारांग १४४ में इस बात का समर्थन करते हुए कहा गया है कि ज्ञानी मुनि जैसे सम्पन्न को धर्मोपदेश देता है, वैसे ही विपन्न को भी और जैसे विपन्न को धर्मोपदेश देता है, वैसे ही पुण्यवान् या सम्पन्न को भी धर्मोपदेश देता है । आचारांग में लोक-हितार्थं जिन नैतिक-सद्गुणों या धर्म की चर्चा है, वह इस बात का सबल प्रमाण है कि सूत्रकार की दृष्टि न केवल वैयक्तिक कल्याण तक ही सीमित है वरन् उसमें समाज कल्याण को भी समाहित किया गया है । पुनः इस बात की पुष्टि करते हुए आचारांग में कहा है कि प्राणिमात्र के प्रति कल्याण - कामना से आप्लावित होकर अर्हत् प्रवचन का प्रस्फुटन होता है । १४५ तात्पर्य यह है कि वैयक्तिक साधन की उपलब्धि के बाद स्वयं तीर्थंकर जीवन भर जन-जीवन को उपदेशामृत का पान कराकर सत्पथ दिखाते रहते हैं । आचारांगसूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध का पन्द्रहवाँ अध्ययन इस बात का प्रमाण है कि महावीर ने वैयक्तिक कल्याण के लिए बारह वर्ष पर्यन्त एकाकी जीवन व्यतीत कर कठोरतम साधना की । उनके द्वारा की गई निवृत्तिपरक आत्म- केन्द्रित साधना जन-कल्याणकारी सिद्ध हुई । उस साधना से प्राप्त सिद्धि का उपयोग उन्होंने लोकहितार्थं किया । इससे यह सिद्ध होता है कि आचारांग मात्र आत्म-हित की ही बात नहीं करता, उसे लोक-हित भी स्वीकार्य है । I उपर्युक्त समग्र तथ्यों के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि सामाजिक कल्याण करने के पूर्व वैयक्तिक साधना अत्यावश्यक है । वैयक्तिक कल्याण की साधना सामाजिक कल्याण में बाधक नहीं, अपितु साधक बनती है । इस दृष्टि से आत्म-कल्याण और लोककल्याण में परस्पर विरोध प्रतीत नहीं होता । आचारांग में वैयक्तिक दृष्टि से साधक को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में समता में प्रतिष्ठिति होने की प्रेरणा दी गई है । साथ ही वह समाज के सभी वर्गों के प्रति समतापूर्ण व्यवहार करने का सन्देश भी देता है समाज की संरचना है । । उसका आदर्श समतावादी सन्दर्भ - सूची अध्याय ३ १. जे आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते आसवा । आचाराङ्ग १/४/२. २. आचारांग १/४/२ पर शीलांक की टीका पत्रांक १६४-१६५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy