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नैतिकता की मौलिक समस्याएँ और आचारांग : ७३
उपलब्ध होता है । वह नैतिकता के सामाजिक पक्ष की उपेक्षा नहीं करता । उसमें वैयक्तिक कल्याण के साथ ही लोक-कल्याण ( सामाजिक नैतिकता ) पर भी ध्यान दिया गया है । जहाँ तक वैयक्तिक नैतिकता का प्रश्न है अस्तित्ववाद और आचारांग अधिक निकट हैं । आचारांग भी मोक्ष प्राप्ति के लिए वैयक्तिक नैतिकता का पूर्ण समर्थन करता है । वैयक्तिक नैतिकता की अवधारणा के सन्दर्भ में डा० हृदयनारायण मिश्र का कथन है कि नैतिक आत्म-अस्तित्व ही सत्य है । वह गत्यात्मक एवं उदीयमान है । वह व्यक्ति को सतत् महनीयता प्रदान करता है । उसका ज्ञान हमें कोरा ज्ञान प्रदान नहीं करता, वरन् इसके ज्ञान में हमारे जीवन को अधिक ऊँचा और महान बनाने की प्रेरणा रहती है । सामाजिक नैतिकता और आचारांग :
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जो विधि-विधान या आचार- पालन लोक व्यवहार या समाज को दृष्टि में रखकर किया जाता है, उसे सामाजिक नैतिकता कहते हैं । सामाजिक नैतिकता का पालन वैयक्तिक साधना की अपेक्षा संघ की दृष्टि से अधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है। इसमें मुख्यतः लोक-कल्याण को ध्यान में रखा जाता है । सामाजिक नैतिकता या नियमों का पालन इसलिए भी आवश्यक है कि सामाजिक या संघीय व्यवस्था सुव्यवस्थित बनी रहे । यही कारण है कि नैतिक साधना की उच्च भूमिका पर आरूढ़ महापुरुषों द्वारा भी संघ - हित के कार्यों का सम्पादन सहज भाव से किया जाता है । यद्यपि मोक्ष की साधना व्यक्तिगत या आत्मनिष्ठ है, किन्तु संघ ( समाज ) उसकी साधना में सहयोगी बनता है । अतः संघीय मर्यादाओं का पालन और संघ - हित सम्पादन साधक के लिए आवश्यक है ।
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आचारांग में वैयक्तिक मुक्ति या आत्म-हित को ही जीवन का लक्ष्य माना गया है । किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि उसमें सामाजिक कल्याण को अस्वीकार किया गया है । आचारांग में स्पष्ट कहा गया है कि 'साधक को आत्म-कल्याण करते हुए समाज कल्याण भी करना चाहिए । समद्रष्टा मुनि धर्मोपदेश के द्वारा पूर्वादि दिशाओं में स्थित सभी लोगों को कल्याण मार्ग दिखाता है' । १४3 इससे स्पष्ट है कि लोकमंगल भी उसका आदर्श है । वह जन-जन को सन्मार्ग की दिशा में प्रेरित करता है । उसकी दृष्टि में उपदेश के लिए व्यक्तिविशेष, जाति, धर्म, सम्प्रदाय और स्थान विशेष के लिए कोई आग्रह नहीं होता । जहां भी आवश्यक होता है, वहीं उसकी उपदेश-धारा फूट पड़ती है । उसके उप
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