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७२ : आचाराङ्ग का नोतिशास्त्रीय अध्ययन
उपयुक्त उदाहरणों से यह स्पष्ट होता है कि आचारांग-शुद्ध रूप से व्यक्तिनिष्ठ नैतिकता पर बल देता है । नैतिक आचरण दूसरों के लिए नहों, अपितु स्वयं के लिए ही आचरणीय होता है । सदाचरण का उद्देश्य लोक-कल्याण नहीं, वरन् आत्मोत्थान है। जब तक आत्म-हित नहीं सधता, तब तक लोक-हित या लोक-कल्याण सम्भव नहीं। आचारांग के अनुसार नैतिक साधना की कसौटी है, साधक राग-द्वेष, मोह, आसक्ति का कितना प्रहाण कर पाया है। वह कहाँ तक स्वार्थों, द्वन्द्वों एवं वासनात्मक वृत्तियों से ऊपर उठा है।
आचारांग के अनुसार साधक को असम्यक् आचरण का त्याग, कर्म से नहीं प्रत्युत मन से भी करना होता है। वह अपने प्रति सत्यनिष्ठ होता है । जो साधक लोक-भय के कारण पाप-कर्म नहीं करता, वह अपनी साधना के प्रति निष्ठावान नहीं है। आचारांग में यह प्रश्न उठाया गया है कि जो साधक एक दूसरे की आशंका, लज्जा, भय, दबाव या बाध्यतावश पाप-कर्म या अनैतिक आचरण नहीं करता है, क्या उसमें मुनित्व होता है ? अथवा क्या वह मुनि (नैतिक) कहला सकता है ?13९ वस्तुतः यह आत्म-वंचना है। ऐसा साधक मुनि नहीं कहला सकता। आचारांगटीका१४० में भी यही कहा गया है कि जो साधक मात्र लोकलज्जा एवं गुरु आदि के भय के कारण पाप-कर्म नहीं करता, उसे मुनि नहीं कहा जा सकता है। उसे लोकोपचार या वेश के कारण ही मुनि कहा जाता है । पारिभाषिक शब्दावली में वह द्रव्य मुनि है । तात्पर्य यह है कि समग्र बाह्य आचरण, विधि-विधान, लोक-मर्यादाओं एवं परम्पराओं का पालन यदि अंतःकरण की समता से प्रेरित होकर किया जाता है, तभी वह मुनित्व का कारण बन सकता है। इसका अर्थ यह है कि नैतिकता लोक-सापेक्ष न होकर आत्म-सापेक्ष है। .
इस प्रकार संक्षेप में आचारांग की नैतिकता आल्मकेन्द्रित है। आचारांग के अनुसार आत्मोत्थान ही साधक-जीवन का प्रमुख आदर्श है । साधक का चिन्तन, मनन एवं प्रवृत्ति सब 'स्व' की ओर होनी चाहिए । उसे अपने स्व-स्वरूप में रमण करना चाहिये । १४१
इस सन्दर्भ में आचारांग का दृष्टिकोण बहुत कुछ समकालीन सत्तावादी ( अस्तित्ववाद ) विचारकों के समान है। कीर्केगार्डीय नैतिकता में सामाजिक नैतिकता का अभाव है। कोर्केगार्ड केवल व्यक्ति की वैयक्तिकता पर ही जोर देता है, जबकि आचारांग में सामाजिक तत्त्व भो
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