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नैतिकता की मौलिक समस्याएँ और आचारांग : ७१ वही बाहर हो और जो बाहर हो वही तुम्हारे भीतर हो।१२८ निश्चय के साथ व्यवहार और व्यवहार के साथ निश्चय का सम्बन्ध जुड़ा रहे, सर्वागीण शुद्धि बनी रहे, यही आचारांग के निश्चय और व्यवहार का रहस्य है। श्रीमद्रराजचन्द्र जी ने निश्चय और व्यवहार के वास्तविक रहस्य को उद्घाटित करते हुए अपनी अध्यात्म-वाणी में कहा है
लहयु स्वरूप न वृत्तिनु, ग्रह यु व्रत अभिमान । ग्रहे नहीं परमार्थने, लेवा लौकिक मान ।। अथवा निश्चयनय ग्रहे, मात्र शब्दनी मांय । लोपे सद्व्यवहारने, साधन रहित थाय । निश्चय वाणी सांभली, साधन तजवा नोय । निश्चय राखी लक्षमां साधन करवा सोय । नयनिश्चय एकान्त थी, आमां नथी कहेल । एकान्त व्यवहार नहीं, बन्ने साथ रहेल १२९ ॥
वैयक्तिक और सामाजिक नैतिकता वैयक्तिक नैतिकता और आचारांग : ___ आचारांग में विवेचित निश्चय और व्यवहार धर्म तथा वैयक्तिक
और सामाजिक धर्म में कोई भेद दृष्टिगत नहीं होता। नैश्चयिक नैतिकता ही वैयक्तिक नैतिकता है और व्यावहारिक नैतिकता हो सामाजिक नैतिकता है । दोनों का सीधा सम्बन्ध हमारे व्यक्तिनिष्ठ
और समाजनिष्ठ अर्थात् आत्मनिष्ठ और वस्तुनिष्ठ आचार से है। ___ आचारांग वैयक्तिक साधना का प्रबल समर्थक है। यह कहना अत्युक्ति नहीं होगी कि आचारांग का मूल स्वर आत्म-हित अथवा वैयक्तिक मुक्ति है । आचारांग में प्रयुक्त प्रत्येक क्रियापद से इसकी पुष्टि होती है। यद्यपि विस्तार भय से यहाँ सभी को उद्धृत कर पाना सम्भव नहीं है, तथापि इस सन्दर्भ में कुछ उदाहरण दिए जा सकते हैं। आत्महित को ध्यान में रखकर ही साधक को उद्बोधित करते हुए कहा गया है कि हे साधक ! तुझे मध्यस्थ रहकर कर्मों की निर्जरा करनी चाहिए। 13° हे आर्य ! तू आशा, आकांक्षा और स्वच्छन्दता को छोड़ दे।'' विषयाशक्ति रूप भावस्रोत को छिन्न-भिन्न कर डाल । ३२ हे माहन् ! तू अनन्य अर्थात् 'स्व' में रमण कर133 । सूत्रकार का साधक को निर्देश है कि अपने आप निग्रह करते हुए १३४ आलीनगुप्त होकर संयम में पुरुषार्थ करे । १४५ हे पंडित ! तू वर्तमान क्षण को जान । १३६ साधना के लिए उठकर खड़ा हो जा१३७ । क्षण भर भी प्रमाद मत कर ।१३८
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