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________________ ७० : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन है कि जहाँ एक ओर श्रमण महावीर के वैयक्तिक जीवन के कण-कण में समता, वीतरागता, निःस्पृहता और निष्कामता परिव्याप्त है, वहीं दूसरी ओर उनके प्रत्येक आचार और व्यवहार से अहिंसा की अजस्र धारा प्रवाहित हो रही है, देहासक्ति का विसर्जन हो रहा है । उनके द्वारा आचरित आत्म-शुद्धिमूलक आचरण ही हमारे समक्ष यह सबल आधार प्रस्तुत करता है कि नैतिक साधना की परिपूर्णता के लिए वैयक्तिक दृष्टि से आत्मनिष्ठ नैतिकता और सामाजिक दृष्टि से वस्तुनिष्ठ नैतिकता दोनों आवश्यक है, क्योंकि सामान्यतया कोई भी साधक आत्मानुभव पर तुरन्त छलांग नहीं लगा सकता। वह शनैः शनैः इस दिशा में आगे बढ़ सकता है। अर्थात् प्रारम्भिक भूमिका में आरूढ़ व्यक्ति को निश्चय ( आन्तर-शुद्धि) के शिखर पर चढ़ने के लिए व्यवहार की तलहटी से ही आगे बढ़ना होता है । ऐसी स्थिति में नैश्चयिक आचार उस दिशा-सूचक यंत्र को भांति है, जो सही दिशा में चलने के लिए मार्गदर्शन देता रहता है । वास्तविकता यह है कि नैश्चयिक आदर्श को लक्ष्य में रखकर व्यावहारिक मर्यादाओं का पालन करते रहने से आत्मपूर्णता की प्राप्ति हो सकती है। उपाध्याय यशोविजयजी ने भी श्री सीमंधरस्वामी के स्तवन में कहा है - निश्चयदृष्टि चित्तधरीजी, पाले जे व्यवहार । पूण्यवन्त ते पामशे जी, भवसमुद्रनो पार१२६ ॥ आचारांग के उक्त विवेचन के आधार पर निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि उनमें वैयक्तिक साधना की दृष्टि से नैश्चयिक आधार पर बल देते हुए भी सामाजिक दृष्टि से व्यावहारिक आचार की उपेक्षा नहीं हुई है । निश्चय, आदर्श की बात करता है तो व्यवहार यथार्थ की । आदर्श के बिना यथार्थ का कुछ भी मूल्य नहीं है। इसी प्रकार वह आदर्श जो यथार्थ नहीं बन सकता, कुछ महत्त्व नहीं रखता है । आदर्श आँख है तो यथार्थ पैर। आँख के बिना देखना सम्भव नहीं है तो पैर के बिना चलना असम्भव है। बिना गति किए देखते रहने से भी क्या लाभ ? और देखे बिना मात्र गति करने से भी क्या लाभ ? ___ आचारांग के अनुसार दोनों परस्परापेक्षी हैं और दोनों ही अपनेअपने ध्येय के अनुसार अपने क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण हैं। सूत्रकार का स्पष्ट कथन है कि 'जहा अंतो तहा बाहिं, जहा बाहिं तहा अंतो'१२७ अर्थात् जैसा भीतर है वैसा बाहर होना चाहिए और जैसा बाहर है वैसा ही भीतर रहना चाहिए । अथर्ववेद में भी कहा है कि जो तुम्हारे अन्दर हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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