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नैतिकता की मौलिक समस्याएँ और आचारांग : ६९
कहा गया है कि आत्मसमाधिस्थ वीतरागी ( अनासक्त ) आत्मा, तपध्यान रूपी अग्नि के द्वारा पुराने काष्ठ के समान अपने कर्म - शरीर को कृश करके शीघ्र जला डालता है । १२४ यहाँ सूत्रकार का अभिप्राय मात्र स्थूल शरीर को पतला करने से नहीं है । शरीर भले ही स्थूल हो या कृश, शरीर को कृशता या स्थूलता से साधना में कोई अन्तर नहीं पड़ता । सूत्रकार का स्पष्ट आशय कषायात्मा को अर्थात् मानसिक विकारों को कृश करने से है । जो अन्तःकरण, कषायों से स्थूल हो रहा है, उसे कृश करना है । कठोर तपश्चरण करने के साथ ही आत्मसमाधि- अनासक्ति एवं तत्त्वबोध रखते हुए यदि स्थूल शरीर कृश हो जाए तो कोई हर्ज नहीं, किन्तु जोर इस तथ्य पर दिया गया है कि चित्त का समाधिभाव या समता भाव भंग न हो। इससे ज्ञात होता है कि आचारांग में कहीं भी निश्चय को भुलाकर मात्र देह-दमन या देह कष्ट को धर्म नहीं माना गया है ।
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प्रसंगोचित यहाँ यह भी उल्लेख कर देना आवश्यक प्रतीत होता है कि जैन धर्म के कठोर तप, ध्यान, समाधि, उग्र क्रिया काण्ड को देखकर आज भी अधिकांश सामान्यजनों को यहो धारणा है कि जैन-साधना देहोत्पीड़न पर अति बल देती है । परन्तु उनकी यह धारणा निराधार और भ्रान्त है । कहीं भी ऐसा प्रतीत नहीं होता कि आचारांग में बाह्य आचार-नियमों या व्यावहारिक नैतिकता पर ही बल दिया गया हो । वह बाह्य आचार-नियमों के साथ हो आन्तरिक विशुद्धि पर भी समान रूप से बल देता है ।
इस सम्बन्ध में आचारांग में भगवान महावीर ने विवेकज्ञान (परिज्ञा) का निरूपण किया है१२५ । साधक पहले ज्ञ-परिज्ञा से वस्तु तत्त्व के यथार्थ स्वरूप को जाने । उसके बाद प्रत्याख्यान - परिज्ञा के द्वारा उसका त्याग करे । निष्कर्ष यह है कि वृत्ति का परिज्ञान हो जाने के बाद प्रवृत्ति की ओर अभिमुख होना चाहिए । यद्यपि यह सही है कि आचारांग और परवर्ती जैन ग्रन्थों में देह कष्ट रूप आचार-साधना का विधान है, तथापि उसके मूल में एकान्त अतिवाद के लिए तनिक भी अवकाश नहीं है । आचारांग में साधना का मूल समत्व है । उसके प्रकाश में जो भी साधना की जाएगी, उसमें दिव्यता आती हो है । इस प्रकार साधना के दोनों रूपों में सन्तुलन बनाए रखने से हो नैतिक जीवन का सम्यक् विकास सम्भव है ।
आचारांग सूत्र का नौवाँ अध्ययन भी इस बात का ज्वलन्त प्रमाण
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