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________________ ६८ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन उसी प्रकार आत्मगुप्त होकर बाह्य आचार या संयम का यथावत् पालन करता रहता है। संयम के प्रति कदापि उपेक्षाभाव नहीं रखता।२१ इसके विपरीत जो साधक प्रमाद में पड़ जाता है, संयम की उपेक्षा करता है, वह मुनित्व से च्युत हो जाता है । एतदर्थ यह कहा गया है कि मुनिजन सदा जागते रहते हैं ।१२२ इससे यह स्पष्ट है कि नैश्चयिक दृष्टि से परमार्थ की उपलब्धि हो जाने के बाद भी व्यावहारिक दृष्टि से लौकिक आचार मर्यादाओं का पालन करते रहना चाहिए। सामान्यतः बाह्य आचार को ही हमारे नैतिक मूल्यांकन की कसौटी माना जाता है। ___ सामान्य व्यक्ति बाह्य आचरण के आधार पर ही हमारे सम्बन्ध में कुछ निर्णय दे सकता है कि यह व्यक्ति भला है अथवा बुरा। फिर भले ही, हमारी आन्तरिक मनोवृत्तियाँ कैसी ही क्यों न हों। इससे व्यावहारिक या सामाजिक शुद्धि बनी रहती है। तात्पर्य यह है कि नैतिक जीवन में न तो एकान्त रूप से व्यावहारिकता को ही पकड़े रहकर निश्चय को आँखों से ओझल करना चाहिए और न एकान्ततः निश्चय के नाम पर व्यावहारिक मर्यादाओं का लोप कर देना चाहिए । एकान्त निश्चय के नाम पर वैयक्तिक जीवन में दम्भ पनपने की सम्भावना बनी रहती है और एकान्त व्यवहार से आत्मशुद्धि पीछे रह जाती है अथवा आत्म-प्रवंचना का भय बना रहता है। इसलिए दोनों को सम्भालकर समन्वित साधना करना आवश्यक है। __ आचारांग में कहा है कि इस संसार में आत्मद्रष्टा ( परमदर्शी) मुनि राग-द्वेष रहित शुद्ध जीवन जीता है। उपशान्त भाव में रमण करने वाला वह मुनि सम्यक्-प्रवृत्ति तथा ज्ञानादिगुण-सम्पन्न होता है। वह सदा जागरूक रहते हुए जीवन के अन्तिम क्षण तक संयम ( साधना) में विचरण करता है । १२३ आचारांगसूत्र आचार-साधना का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें कठोरतम साधना वर्णित है। फिर भी इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि इसमें कोरी व्यावहारिक आचार-संहिता ही है। यह मूल्य अपने आप में एक विशिष्टतापूर्ण है। इसकी विशेषता यह है कि यह तप-ध्यान-समाधि के साथ ही क्रिया-काण्डरूप कठोरतम बाह्य साधना के लक्ष्य, स्वस्वरूप बोध को अधिक महत्त्व देता है । इसमें कठोरतम बाह्य आचार विधि के वर्णन के बावजूद कहीं नैश्चयिक साधना (आत्मसमाधि-भाव) धूमिल नहीं होने पायी है। आचारांग में यह स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है कि किस प्रकार एक साथ निश्चय और व्यवहार की साधना सम्भव है । उसमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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