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________________ नैतिकता की मौलिक समस्याएँ और आचारांग : ६७ के लिए भी घातक सिद्ध होता है। आचारांग के अनुसार सच्चा समाज हित तो वही कर सकता है, जो वीतराग-आज्ञा का आराधक है तथा जो निजी स्वार्थों से ऊपर उठकर समत्व को भूमिका पर अवस्थित हो गया है। आज साधक वर्ग में लोकैषणा की भूख इतनी बढ़ गई है कि वह लोक-कल्याण के नाम पर अपने स्वार्थ का पोषण कर रहा है। आचारांग के अनुसार हम यह निःसन्देह कह सकते हैं कि बिना वैयक्तिक नैतिकता की उपलब्धि किए, बिना इच्छा-आकांक्षा और कामनाओं से ऊपर उठे, लोक-हित की दिशा में आगे नहीं बढ़ा जा सकता। यही कारण है कि आचारांग में लोक-संज्ञा या लोकैषणाओं का त्याग कर संयम में पुरुषार्थ करने वाले व्यक्ति को हो सच्चा मतिमान् ( ज्ञानी) कहा गया है।११९ इस प्रकार आचारांग में नैतिकता के दोनों दृष्टिकोण प्राप्त होते हैं। उसमें जहाँ एक ओर समता को धर्म कहकर नैश्चयिक नैतिकता का समर्थन किया गया है, वहीं दूसरी ओर 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' के अनुसार व्यावहारिक नैतिकता को भी स्वीकार किया गया है । निश्चय और व्यवहार धर्म : कौन अधिक मूल्यवान ? ___ यहाँ सहज ही यह जिज्ञासा हो सकती है कि नैश्चयिक और व्यावहारिक नैतिकता में कौन महत्त्वपूर्ण है ? यह प्रश्न बड़ा पेचीदा है, किन्तु आचारांग में इस प्रश्न का समुचित समाधान मिलता है। __ आचारांग का सम्यक् अनुशीलन करने पर यह भलीभाँति विदित होता है कि जहाँ एक ओर आचारांग के प्रत्येक अध्ययन में नैश्चयिक साधना ( आन्तरिक विशुद्धि ) की दृष्टि से आत्म-समता, आत्म-समाधि, आत्म-जागरूकता, वीतरागता, निःस्पृहता, अनासक्ति, मानसिक पवित्रता आदि के स्वर मुखरित हुए हैं, वहीं दूसरी ओर उसमें व्यावहारिक आचार-पालन की दृष्टि से इन्द्रिय-मनोजय, तप-ध्यान, यमनियम-संयमादि अनेक विधि-विधानों का प्रतिपादन हुआ. है । साधक स्वस्वरूप दशा को प्राप्त करने के लिए सतत् पुरुषार्थ करता है। इसके लिए वह मानसिक द्वन्द्वों से ऊपर उठकर तप-संयम, स्वाध्यादि का आश्रय लेता है। आचारांग के अनुसार सच्चे साधक के लिए नैतिकता के अन्तर और बाह्य रूपों में कोई अन्तर नहीं होता। वह जिस प्रकार मुनित्वभाव को साधना के लिए समता से अपनी आत्मा को प्रसन्न करता है,१२० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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