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६६ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन
रिक आचार- पालन की मुख्य उपादेयता यही है कि साधक बाह्य आचाररूप नियमोपनियमों के पालन के द्वारा जन-चेतना या समाज के समक्ष नैतिक साधना का आदर्श प्रस्तुत करता है । वैयक्तिक मुक्ति के साधक की साधना उस जलती हुई अगरबत्ती के सदृश है जो समीपवर्ती क्षेत्रों को समान रूप से सुगन्धि-सम्पन्न बनाती है । उसकी बाह्य साधना की सारी पद्धतियाँ समाज के लिए हितकर सिद्ध होती हैं ।
वर्तमान सन्दर्भ में व्यावहारिक नैतिकता की दृष्टि से प्रश्न उठता है कि आज धर्मं के नाम पर मानव-मन में अनास्था क्यों बढ़ रही है ? वास्तव में आज साधक वर्गं की कथनी-करनी में एकरूपता नहीं रह गई है । यह एकरूपता का अभाव ही व्यक्ति की अनास्था का प्रबल कारण है । साधक जीवन का बहुरूपियापन ही सामान्य व्यक्ति को धर्मं से विमुख बनाता जा रहा है ।
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वर्तमान में बाह्य आचार व्यवहार के आधार पर ही व्यक्ति की निष्ठा में उतार चढ़ाव देखा जा रहा है । साधक वर्ग के निश्छल आचरण से ही सामान्य जन की श्रद्धा बढ़ जाती है और छल-छद्मयुक्त आचरण को देखते ही उसकी श्रद्धा घट जाती है । परिणामतः उसके मन में धर्म के प्रति, साधक वर्ग के प्रति घृणा उत्पन्न हो जाती है । सामान्य व्यक्ति की दृष्टि स्थूल तक रहती है । वह धर्म की गहराई या धर्म के आन्तरिक तत्त्व तक नहीं पहुँच पाता। उसके लिए तो बाह्य आचार-व्यवहार ही बहुत कुछ होता है । अतः साधकों की जीवनचर्या निश्छल होनी चाहिए। साधक का नैतिक आचरण इतना प्रभावपूर्ण होना चाहिए कि सीधे व्यक्ति के अन्तर्मन को स्पर्श कर सके । वस्तुतः मन-वाणी और कर्म की समरसता अथवा कथनी और करनी की एकरूपता ही मुनित्व (नैतिकता ) का मूलाधार है । ११६
आजकल साधकों या मुनियों का जीवन बाह्य या स्थूल मर्यादाओं की दृष्टि से भी गिर गया है । सूत्रकार का स्पष्ट कथन है कि 'अति क्रोधी, मानी, लोभी, दम्भी, प्रवंचक, नट की भाँति बहुरूपिया, अज्ञान और प्रमाद से मूढ़ बना साधक संसार रूप आवर्त में स्वयं डूब जाता है और परिणामतः जन्म-मरण के प्रवाह में चक्कर काटता है'। ११७ ऐसा वीतराग आज्ञा का अनाराधक चरित्रहीन ( दुर्वसु ) मुनि सच्चाई पूर्वक शुद्ध धर्म का निरूपण नहीं कर सकता। क्योंकि ज्ञानादि गुणों से रहित साधक, धर्म का प्ररूपण करने में लज्जा, भय और ग्लानि का अनुभव करता है । " ऐसा साधक आत्मघातक तो होता ही है, साथ ही समाज
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