________________
नैतिकता की मौलिक समस्याएं और आचारांग : ६५ उन्होंने देश, काल तथा साधकों को बदली हुई मनःस्थिति को ध्यान में रखकर पूर्ववर्ती तीर्थंकर के युग में प्रचलित आचार में परिवर्तन एवं संशोधन किया। उत्तराध्ययन सूत्र में पार्श्वनाथ और महावीर की आचारसम्बन्धी भिन्नता का स्पष्ट उल्लेख है । १०४ यद्यपि आचारांग१०५ में अचेल धर्म की प्रशंसा अवश्य की गई है तथापि उसका दृष्टिकोण आग्रहपूर्ण नहीं है। साधकों की सामर्थ्य एवं परिस्थिति को ध्यान में रखकर उसने एक नमनीय व्यवस्था दी है। जो मुनि निर्वस्त्र रहने में समर्थ थे उनके लिए पूर्णतः अचेल रहने का विधान किया गया, किन्तु जो वैसा करने में असमर्थ थे, उनके लिए एक, दो या तीन वस्त्र रखने तक का विधान भी रखा गया है । १०६ इसका अर्थ यह है कि आचारांग बाह्य आचार-नियमों में देश-काल, व्यक्ति और परिस्थिति को दृष्टिगत रखता है और यही सापेक्षिक दृष्टिकोण है।
फिर भी, आचारांग बाह्य नैतिकता को इतना लचोला नहीं बनाता है कि उसके आधार पर आचार की समूची मर्यादाएँ ही समाप्त हो जांय । उसमें श्रमण के लिए प्रतिबन्ध भी लगाए गये हैं-जैसे मुनि, हिंसा से निर्मित पतले, सुनहले, चमकीले एवं बहुमूल्य वस्त्रों का कदापि उपयोग न करे । १०७ उसे धुले हुए एवं रंगीन वस्त्र भी धारण नहीं करना चाहिए । १०८ यह भी कहा है कि मुनि तूम्बे ( अलाबु ), काष्ठ एवं मिट्टी के अतिरिक्त अन्य पात्रों का उपयोग न करे। १०९ औद्देशिक एवं अनेषणीय अर्थात् मुनि के निमित्त बनाया गया एवं अशुद्ध आहार ग्रहण न करे । १० जहाँ नित्यपिण्ड और अग्रपिण्ड दिया जाता है, उन घरों में गोचरी (भिक्षा ) के लिए न जाय ।११ राजपिण्ड भी न ले ।११२ एक मास से अधिक एक स्थान पर न रहे११3 आदि। इसी तरह स्वाध्याय-ध्यान के सम्बन्ध में निर्देश है कि मुनि रात्रि के प्रथम और अन्तिम प्रहर में स्वाध्यादि में प्रयत्नशील रहे । ११४ ब्रह्मचर्य पालन के लिए भी आचारांग में अनेक निर्देश हैं।११५
संक्षेप में, आचारांग में आहार-विहार-निहार, आवास ( शय्या) वस्त्र, पात्र, भाषा, पाँच महाव्रत तथा तत्सम्बन्धी भावनाओं के स्वरूप के सम्बन्ध में जो नियम-उपनियम हैं, उन सबका मूल अहिंसा ही है । साथ ही उसमें आचार के जो नियम-उपनियम प्रतिपादित हुए हैं, उनमें अनेक वैज्ञानिक दृष्टि से भी उचित प्रतीत होते हैं। ___ मोक्ष-साधक इन सदाचरणों से सामाजिक व्यवस्था को सुदृढ़ बनाए रखता है। वह आदर्श-समाज का निर्माण भी कर सकता है। व्यावहा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org