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________________ ६४ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन आचाराङ्ग में व्यावहारिक नैतिकता : व्यवहार-दृष्टि से आचरण के बाह्य पक्ष पर विचार किया जाता है। बाह्य आचार में नियमोपनियमों का समावेश होता है। आचरण का यह बाह्य स्वरूप व्यावहारिक नैतिकता है। यद्यपि आचाराङ्ग की साधना-पद्धति में आचार के बाह्य नियमों का विस्तार से विवेचन हुआ है तथापि नैश्चयिक आचार को एक ऐसा केन्द्र बिन्दु माना गया है, जिस पर समूची व्यावहारिक नैतिकता आधारित है। नैश्चयिक आचार के बिना बाह्य-आचार या साधना का आध्यात्मिक दृष्टि से विशेष मूल्य नहीं है। आचारांग के अनुसार नैश्चयिक दृष्टि से नैतिक जीवन का साध्य 'समता' है और इसी समताभाव की उपलब्धि हेतु साधन रूप में व्यवहार धर्म का प्रतिपादन हुआ है। __ आचाराङ्ग में अहिंसा शुद्ध और अनित्य धर्म के रूप में प्रतिष्ठित है।०२ किन्तु प्रश्न यह है कि आचारांग में अहिंसा को जो 'शुद्धे णिच्चे सासए' कहा गया है उसका क्या तात्पर्य है ? किस अपेक्षा से वह शुद्ध और शाश्वत धर्म है और किस अपेक्षा से वह व्यवहार धर्म है ? इस प्रश्न के समाधान के लिए दो दृष्टिकोणों से विचार अपेक्षित होगा। अहिंसा-धर्म के भी दो रूप हैं-निश्चय और व्यवहार। नैश्चयिक या मानसिक अहिंसा निरपेक्ष धर्म है। वह शुद्ध और शाश्वत है जबकि आचरणात्मक अहिंसा व्यवहार धर्म है, क्योंकि वह देश, काल और समाज-सापेक्ष है। सापेक्ष धर्म परिवर्तनशील है। उसके विधिविधानों, परम्पराओं और मर्यादाओं में परिवर्तन होता रहता है। उसमें चिरन्तन एकरूपता नहीं रह पाती। पण्डित सुखलाल जी संघवी कहते हैं कि 'व्यावहारिक आचार एक रूप नहीं है। नैश्चयिक आचार की भूमिका से निष्पन्न ऐसे भिन्न-भिन्न देश-काल, जाति-स्वभाव-रुचि आदि के अनुसार कभी-कभी परस्पर विरुद्ध दिखाई देने वाले आचार भी व्यावहारिक-आचार की कोटि में गिने जाते हैं । नैश्चयिक आचार की भूमिका पर वर्तमान एक ही व्यक्ति अनेकविध व्यावहारिक आचारों में से गुजरता है । १०३ तीर्थंकर अपने युग की परिस्थिति के अनुसार पूर्व प्रचलित बाह्य आचार, विधि-विधानों, परम्पराओं और मर्यादाओं को बदलते हैं, उसमें संशोधन परिवर्धन करते हैं। प्रथम तीर्थंकर के समय में आचार-मर्यादाएँ जिस रूप में थीं, वे अन्य तीर्थंकरों के समय में नहीं रहीं। जो विधि-विधान भगवान पार्श्वनाथ के समय में थे, वे भगवान महावीर के युग में नहीं रह सकते थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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