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________________ नैतिकता की मौलिक समस्थाएं और आचाराङ्ग : ६३ 'वीर' वह है, जो बाहरी शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है। लेकिन आचारांग के अनुसार 'वीर' वह है जो काम-क्रोधादि आन्तरिक शत्रुओं को परास्त कर दे। काम-क्रोधादि से मनोस्नायुविकृतियां उत्पत्न हो जाती हैं। ऐसी विकृतियों से मुक्त होने वाला हो 'वीर' है। वस्तुतः 'वीर' समत्वदर्शी होता है और समत्वदर्शी 'वीर' होता है। आचारांग के टीकाकार ने भी 'वीर' शब्द की व्याख्या करते हुए इस तथ्य की पुष्टि की है। उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि आचारांग में नैश्चयिक दृष्टि से समता को ही नैतिक जीवन का प्रधान कारण माना गया है। जितने अंश में आचरण समतापूर्ण होगा, उतने ही अंश में हम नैतिक होंगे। समत्व प्रधान मुनित्व की एकता को प्रतिपादित करते हुए कहा गया है कि जं सम्मति पासहा, तं मोणं ति पासहा । जं मोणं ति पासहा तंसम्मति पासहा ॥१८ जो समत्व या सम्यक्त्व को देखता है वह मुनित्व को देखता है और जो मुनित्व को देखता है, वह सम्यक्त्व को देखता है। वस्तुतः जहाँ समत्व होगा, वहाँ मुनित्व ( नैतिकता) का होना अवश्यम्भावी है, और जहाँ मुनित्व होगा वहाँ समता होनी चाहिए। दोनों परस्पराश्रित हैं । अतः नैश्चयिक या आध्यात्मिक साधना का मूल केन्द्रबिन्दु समता ही है। उपाध्याय यशोविजय जी ने भी अध्यात्मसार में समता को ही एक मात्र मुक्ति का उपाय कहा है। समता के बिना सारी क्रियाएँ ऊसर भूमि में बोये गए बीज के समान निष्फल हैं ।९९ नैश्चयिक साधना के रूप में समता पर बल देते हुए उपाध्याय विनयविजय जी ने तो यहाँ तक कहा है कि 'समता विण जे अनुसरे, प्राणी पुण्यना काम । छार ऊपर ते लीपणु, झांखर रे चित्राम । १०० इस सन्दर्भ में अध्यात्मयोगिराज आनन्दघन जी ने भी कहा है किमान अपमान चित्त समगणे, समगणे कनक पाषाण । वन्दक निन्दक समगणे, इस्यो होय तु जाण ।। सर्व जग जन्तुने समगणे, समगणे तृणमणिभावरे । मुक्ति-संसार बेउ समगणे, मुणे भवजल निधिनावरे ॥१०१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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