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________________ ६२ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन उत्तराध्ययन, अष्टप्राभृत,८ प्रवचनसार,९ धम्मपद और गीता में भी यही बात प्रतिध्वनित हुई है । आचारांग में यह भी निर्देश मिलता है कि श्रमण को भिक्षाचरी में भी समता भाव रखना चाहिए। दाता के कुछ भी न देने पर मुनि को क्रुद्ध नहीं होना चाहिए। अल्पमात्रा में भिक्षा उपलब्ध होने पर दाता की निंदा नहीं करनी चाहिए। निषेध करने पर शान्तभाव से लौट आना चाहिए। इस प्रकार वह श्रमण मुनित्व की सम्यक रूप से आराधना करे। वही वीर प्रशंसा का पात्र होता है जो अपनी संयम-साधना में लीन रहता है । ९२ यहाँ सूत्रकार ने मुनि को भिक्षाचर्या करते समय अनासक्त रहने का उपदेश देकर इसके मनोवैज्ञानिक पक्ष को स्पष्ट कर दिया है। आहार उपलब्ध हो या न हो, विपुल मात्रा में प्राप्त हो या अल्पमात्रा में, सभी अवस्थाओं में उसे समत्व बनाए रखना चाहिए अन्यथा राग-द्वेष, हर्ष-शोक, क्रोध, अभिमान, संग्रह आदि विकारों से ग्रसित होने की सम्भावना रहती है । यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि मनुष्य स्वभावतः इष्ट पदार्थ उपलब्ध होने पर हर्षित होता है और नहीं मिलने पर रुष्ट होता है। सूत्रकार ने ‘णमे देइ कुप्पेज्जा' (आचारांग-१/२/५-८६ ) एवं 'लाभुत्ति ण मज्जिज्जा' ( आचारांग'१/२/५-८९ ) इन दोनों सूत्रों में मनोवैज्ञानिक तथ्य को उजागर किया है। साथ ही, यह स्पष्ट निर्देश दिया है कि मनि इन मानगिक आवेगों से सर्वथा बचे और अपने मुनित्व का भलीभाँति पालन करे । सूत्रकार का कथन है कि मिलने पर अभिमान न करे, नहीं मिलने पर शोकाकुल न होवे, विपुल मात्रा में उपलब्ध होने पर संग्रह न करे।९३ ____ मुनि वस्त्र-पात्र आहार आदि से अपना जीवन-निर्वाह करते हुए भी रागद्वेषात्मक मनोवृत्तियों से अपने आपको लेश मात्र भो दूषित न होने दे, आचारांग में इसका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण हुआ है। सूत्रकार कहता है कि जो व्यक्ति इन प्रिय-अप्रिय मनोवृत्तियों से ऊपर उठ जाता है, उसकी पदार्थ विषयक आसक्ति टूट जाती है और वह प्रबुद्ध सार्थक क्षण भर में मुक्त हो जाता है।९४ यह आर्यों द्वारा प्रतिपादित अनासक्ति का मार्ग है। इस मार्ग का अनुसरण करने वाला कुशल पूरुष निलिप्त रहता है।९५ आचारांग में यह भी कहा गया है कि समत्वदर्शी वीर साधक प्रान्त ( जो बचा हुआ है ), रूखा-सूखा यथा प्राप्त आहार का सेवन करता है ।९६ सूत्र में 'वीरा सम्मत्तदंसिणो' का प्रयोग करके आचारांग में समता मनोविज्ञान को व्यक्त किया गया है । सामान्यतया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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