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नैतिकता की मौलिक समस्याएँ और आचारांग : ६१ गया है कि 'समतायोगी साधक समस्त आकांक्षाओं से परे हो जाता है। उसे न तो जीने की चाह होती है और न मरने की। वह दोनों स्थितियों में आसक्तिरहित होकर विचरण करता है'।२ वह सर्दो-गर्मी, भूख-प्यास आदि में भी समदर्शी रहता है। आचारांग में कहा है कि सुख-दुःख ( शीतोष्ण ) का त्यागी मुनि रति-अरति को सहते हुए स्पर्श जनित सुखदुःख का आसक्तिपूर्वक वेदन नहीं करता है, क्योंकि संकल्प-शक्ति के विकास के द्वारा वह स्वयं को इतना साध लेता है कि परीषह ( कष्ट ) जनित पीड़ा उसे अपने पथ से विचलित नहीं कर पाती और जो कटुमधुर विषय-प्रसंग उसके समक्ष उपस्थित होते हैं, उन्हें वह सहज भाव से सह लेता है। कष्टों का वेदन ( अनुभव ) तो वह व्यक्ति करता है, जो पदार्थ को प्रियता-अप्रियता के भावों से देखता है। यही कारण है क आचारांग में 'जाणति', 'पासति' 'पास' आदि शब्दों का प्रचुर प्रयोग हुआ है। इसका आशय यह है कि ज्ञानी पुरुष इन्द्रिय-संवेदन रहित होकर प्रिय-अप्रिय पदार्थों को मात्र ज्ञाता, द्रष्टा भाव से देखता है। पदार्थ को केवल पदार्थ के रूप से जानना-देखना ही समत्व है। यह साक्षीभाव ही समत्व की कुञ्जी है । जिसे यह समत्व प्राप्त होता है वही ज्ञानी होता है और जो ज्ञानी होता है, उसी को समता प्राप्त होती है। यदि साधक इष्ट-वियोग और अनिष्ट संयोग की प्राप्ति में सम न रहकर सुख-दुःखात्मक संवेदनाओं के प्रवाह में बह जाता है तो वह अपने साधना-मार्ग से च्युत हो सकता है। आचारांग में संयम के प्रति अरुचि
और विषयों की अभिरुचि नहीं करने का भी निर्देश है। सूत्रकार कहता है कि वीर साधक रति-अरति ( आकर्षण-विकर्षण ) दोनों अशुभ (पाप) वृत्तियों को स्वीकार नहीं करता। वह दोनों में स्थिर चित्त (अविमनस्क) रहता है तथा इन वृत्तियों से अपने मन को जरा भी दूषित नहीं होने देता। इसीलिए कहा है कि उस अप्रमत्त तथा समतायोगी साधक के लिए क्या अरति और क्या रति ? उसे दोनों में अनासक्त अर्थात् रतिअरति के मूल रागद्वेष से रहित होकर विचरण करना चाहिए।५ जिसे आत्म-रति या आनन्द की प्राप्ति हो चुकी है, उसे बाह्य रति-अरति से कोई प्रयोजन नहीं रहता। हर्ष-क्रोधादि के आवेग भी पंडित पुरुष के चित्त को उद्वेलित नहीं कर सकते।" तात्पर्य यह कि मुनि का सम्पूर्ण जीवन ही समता या वीतरागता से ओतप्रोत रहता है । अतः वह लाभालाभ, सुख-दुःख, जन्म-मरण, मान-अपमान, हर्ष-शोक आदि सभी प्रसंगों में शान्त एवं सन्तुलित रहता है।
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