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६० : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन
व्यक्ति (जीवन) युगों से इसी समत्व को प्राप्त करने के लिए सतत् प्रयास कर रहा है । वह विक्षोभ, तनाव और मानसिक द्वन्द्व से युक्त होकर समत्व की भूमिका प्राप्त करना चाहता है । संक्षेप में, आचारांग और मनोविज्ञान दोनों के अनुसार स्वस्वभावरूप समत्व की प्राप्ति ही नैतिक जीवन का साध्य है ।
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अब प्रश्न यह उठता है कि जब 'समता' ही आत्मा ( चेतना ) का स्वभाव है तो फिर वह ( चेतना ) समत्वरूप स्वभाव या स्वकेन्द्र से च्युत क्यों हो जाती है ? आचारांग में यह स्वीकार किया गया है कि आसक्ति के कारण ही चेतना अपने स्वरूप से विचलित हो जाती है । कहा है कि 'यह विषयातुरता ( विषयासक्ति ) ही समस्त पीड़ाओं की जननी है' । ७ विषयासक्त एवं अज्ञानी व्यक्ति इस आसक्तिरूप जल से कर्म को जड़ को सींचता हुआ पुनः पुनः संसारप्रवाह में बहकर दुःखी होता रहता है ।" इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि इस आसक्ति से ही तृष्णा उत्पन्न होती है और तृष्णाकुल व्यक्ति उसी की सन्तुष्टि के लिए दिन रात प्रयास करता रहता है। जब उसकी पूर्ति नहीं होती है तो वह व्यथित, चिन्तित एवं विक्षुब्ध हो जाता है ।" सूत्रकार ने तृष्णाकुल व्यक्ति की अनेकचित्तता एवं उसके कारण होने वाले अनर्थों का दिग्दर्शन कराया है । अनेक चित्तवाला पुरुष तृष्णारूपी चलनी को जल से भरना चाहता है और इसकी सम्पूर्ति हेतु वह दूसरों को पोड़ा पहुँचाता है या वध करता है । यहाँ तक की जनपद आदि का संहार करने के लिए भी तत्पर हो जाता है ।" इस प्रकार यह आसक्ति ही चेतना के अपने स्वरूप से च्युति का कारण मानी गई तथा यह बढ़ती हुई आसक्ति ही समस्त विषमताओं का मूल है। यही कारण है कि आचारांग में वीतरागता या समताभाव को बनाए रखने के लिए समस्त आकांक्षाओं, द्वन्द्वों, संघर्षों एवं तनावों के मूल प्रेरक राग के बन्धन को तोड़ने की बात कहो गई है । निष्कर्ष यह है कि वीतरागता या समता चेतना का स्वभाव और विषमता (आसक्ति) विभाव है ।
आचारांग में नैश्चयिक नैतिकता :
आचारांग में नैश्चयिक दृष्टि से समता को हो मुनित्व ( श्रमणत्व ) का मूल लक्षण कहा है। उसमें कहा है 'संयमनिष्ठ साधक समता की साधना से आत्मा को प्रसादित करे अर्थात् समता से आत्मा को भावित करे' 19 इतसे स्पष्ट है कि समता ही साधना का केन्द्रीय तत्त्व है । समता से ही श्रमण की पहचान होतो है । इसी को दृष्टिगत रखते हुए कहा
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