________________
नैतिकता की मौलिक समस्याएँ और आचाराङ्ग : ५९ वही नैश्चयिक नैतिकता है। नैश्चयिक नैतिकता का सीधा सम्बन्ध आन्तरिक वृत्तियों से है। वह प्रत्येक देश-काल, व्यक्ति तथा व्यवहार में एकरूप रहती हैं। भूत, भविष्य और वर्तमान के सभी अर्हतों या तीर्थङ्करों का नैश्चयिक धर्म का प्ररूपण एक रूप ही होता है। यह नैश्चयिक नैतिकता ही धर्म का मूल है ।
यहाँ पर प्रश्न उठता है कि आचारांग के अनुसार धर्म क्या है ? धर्म की व्याख्या के सम्बन्ध में आचारांग का दृष्टिकोण अत्यन्त स्पष्ट है। उसमें धर्म की दो व्याख्याएँ उपलब्ध होती हैं । एक स्थान पर 'समता,७० को धर्म कहा गया है और दूसरे स्थान पर 'अहिंसा'७१ को । इन दोनों में से किसे धर्म माना जाए ? वस्तुतः इन दोनों में कोई अन्तविरोध नहीं है। धर्म की ये दोनों व्याख्याएँ दो भिन्न दृष्टिकोणों का प्रतिनिधित्व करती हैं । आचारांगकार ने नैश्चयिक दृष्टि से 'समता' को और व्यावहारिक दृष्टि से 'अहिंसा' को धर्म कहा है। समता का सम्बन्ध व्यक्ति के आन्तरिक मनोभावों से है, जबकि अहिंसा का सम्बन्ध सामाजिक जीवन के बाह्य व्यवहार से है। यद्यपि स्थूल दृष्टि से इन दोनों में भिन्नता परिलक्षित होती है, तथापि 'समता' और 'अहिंसा' में कोई भेद नहीं है। अहिंसा का उद्भव समता से ही होता है और समता ही व्यावहारिक क्षेत्र में हिसा बन जाती है। दोनों में अन्तर इतना ही है कि समता का सम्बन्ध मन से है और अहिंसा का सम्बन्ध वाणो और काया से है। 'समता' को ही धर्म क्यों माना गया, इसका समुचित समाधान टीकाकार ने करने का प्रयास किया है।
'धम्मविऊ'७२ शब्द की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा 'धर्म' चेतना चेतन द्रव्य स्वभावं3 अर्थात् चेतन-अचेतन द्रव्यों का स्वभाव धर्म है। अर्थात् वस्तु का स्वभाव ही धर्म है। 'धम्मो वत्थु सहावो'४ यह जैन विचार की प्रसिद्ध उक्ति है। जिस प्रकार उष्णता अग्नि का स्वभाव है,
और शीतलता पानी का स्वभाव है उसी प्रजार 'समता' आत्मा (चेतना) का निज स्वभाव है। भगवतीसूत्र में यह प्रश्न उठाया गया है कि आत्मा (चेतना) क्या है और उसका साध्य क्या है ? इस प्रश्न का मनोवैज्ञानिक उत्तर देते हुए कहा है कि आत्मा समत्व रूप है और इस समत्व की प्राप्ति ही आत्मा का साध्य है। आचारांग में 'समता' को इसलिए धर्म माना गया है क्योंकि वह आत्मा (चेतना) का स्वभाव है और जो आत्मा का स्वभाव होगा, वहो जीवन का साध्य होगा।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org