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५८ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन और अन्तरात्मा को प्रमाण माना गया है। गीता" को भी कर्तव्याकर्तव्य का प्रमाण शास्त्र माना गया है।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि आचारांग का दृष्टिकोण अनेकान्तिक है। वह किसी भी वस्तु के गुणदोष का विचार सापेक्ष अर्थात् अनेकान्त दृष्टि से करता है। नैतिक जीवन के सम्यक विकास के लिए एकांगो दष्टि से विचार करना समुचित नहीं। जिन कार्यों का उत्सर्ग होता है उनका अपवाद भी स्वीकार किया जाता है। इस प्रकार, आचारांग में यथावसर उत्सर्ग-अपवाद या विधिनिषेध दोनों का महत्त्व है। दोनों में से किसी को न्यूनाधिक नहीं कह सकते। दोनों ही मार्ग हैं, और ग्राह्य हैं। दोनों के आलम्बन से ही साधना शुद्ध, सशक्त और परिपुष्ट होती है तथा साधक अपने अभीष्ट लक्ष्य को प्राप्त करने में समर्थ होता है। निशीथसूत्र में कहा गया है कि ज्ञानादिगुणों की साधना देशका अनुसार उत् ग-अपवाद के द्वारा ही सफल होती है ।६१ इसलिए नैतिक जीवन की सम्यक प्रगति के लिए यात्रा और पड़ाव के समान उत्सर्ग-अपवाद दोनों ही मार्ग आवश्यक एवं अवलम्बनीय हैं।
नैतिकता के दो रूप-आन्तर और बाह्य (नैश्चयिक नैतिकता और व्यावहारिक नैतिकता) प्राचीन जैनागमों में मुख्यतः विवेचन की दो दृष्टियाँ स्वीकार की गई हैं-एक अन्तरंग दृष्टि और दूसरी बहिरंग दृष्टि । इसे पारिभाषिक शब्दावली में निश्चय दृष्टि और व्यवहार दृष्टि भी कहा गया है। ये दोनों दष्टियाँ नैतिक जीवन में समान मूल्य रखती हैं और आचारदर्शन के क्षेत्र में इन्हीं दोनों दृष्टिकोणों के आधार पर विचार किया जाता रहा है।
आचारांग में भी नैतिक साधना के दो रूप स्वीकृत हैं । वे हैं-बाह्य और आन्तरिक । इन्हें क्रमशः नैश्चयिक साधना और व्यावहारिक साधना कह सकते हैं । नैश्चयिक साधना में आन्तरिक वृत्तियों के परिष्कार का प्रयत्न किया जाता है तो बाह्य साधना में आचार के अनेक विधिविधानों, परम्पराओं और लोक-मर्यादाओं का सम्यक्तया पालन करना होता है।
आचारांग के अनुसार वीतरागता या समता नैतिक जीवन का साध्य है। अतएव जो आचरण वीतरागता की दिशा में ले जाता है,
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