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नैतिकता की मौलिक समस्याएँ और आचारांग : ५७ बुरी तरह जकड़ा हुआ है, जिससे मुक्त होने का निकट भविष्य में कोई लक्षण नहीं दिखाई पड़ रहा है। कर्तव्याकर्तव्य के निर्णय का आधार : ___ आचारांग में नैतिकता के निरपेक्ष और सापेक्ष तत्त्व के सन्दर्भ में उत्सर्ग और अपवाद-दोनों मार्गों का विधान है। नोति के सामान्य या मौलिक नियम निरपेक्ष और विशेष नियम सापेक्ष माने जाते हैं। सापेक्षतत्त्व देशकालादि परिस्थितियों पर निर्भर होता है। किन्तु प्रश्न यह है कि किस देश, काल और परिस्थिति में कैसा आचरण किया जाना चाहिए ? आचारांग के आधार पर यह कहा जा सकता है कि जब तक कोई अपरिहार्य या विशेष परिस्थिति उत्पन्न नहीं हो जाती है तब तक प्रत्येक साधक को नीति के सामान्य मार्ग पर चलना चाहिए। परन्तु इस बात का निर्णय कौन करे कि अमुक परिस्थिति में अपवाद-मार्ग का सहारा लिया जा सकता है ? या यदि लिया जा सकता है तो किस रूप में ? सामान्य साधक यह निर्णय नहीं कर सकता कि उचित क्या है और अनुचित क्या है ? आचारांग के आधार पर यही कहा जा सकता है कि उसमें सामान्य साधक के आचरण के लिए कुशल पुरुषों, प्रज्ञावान्, मनियों, अर्हदाज्ञाओं या जिनोक्त आगमिक आज्ञाओं को प्रमाण मानना चाहिए। उसमें जगह-जगह यह निर्देश है कि साधक को आगम के अनुसार पुरुषार्थ (आचरण) करना चाहिए। आचारांग में एक स्थान पर यह भी कहा है कि 'कुसले पुण णो बद्धे णो मुक्के से जं च आरभे जं च णारभे अणारद्धं च णारभे'६५ कुशल पुरुष न तो बद्ध होता है और न मुक्त होता है । वह किसी प्रवृत्ति का आचरण करता है और किसी प्रवृत्ति का आचरण नहीं करता, ( मुनि ) उसके द्वारा अनाचरित प्रवृत्ति का आचरण न करे। इस प्रकार संक्षेप में, आचारांग तथा उत्तरवर्ती जैनागमों में परिस्थिति विशेष में सापेक्षधर्म ( नैतिकता ) के सम्बन्ध में कर्तव्य-अकर्तव्य, ग्राह्य-अग्राह्य, उचित-अनुचित के निर्णय के लिए अर्थात् व्यक्ति के नैतिक जीवन के लिए मार्गदर्शक के रूप में प्रज्ञावान् मुनियों एवं आगमों को प्रमाणभूत माना गया है। अन्ततोगत्वा कर्तव्याकर्तव्य की अन्तिम निर्णायक निष्पक्ष प्रज्ञा ही है। अभिधान राजेन्द्रकोश६६ में भी व्यावहारिक ( सापेक्ष ) नैतिकता की शुभाशुभता के निर्णय के लिए आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत ये पाँच आधार बताये गए है। वैदिक परम्परा में भी आचरण के निर्णय के लिए वेद, स्मृति, सदाचार
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