SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५६ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन आज्ञा के वह स्वयं एक तिनका ग्रहण न करे, न करवाए और न ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करे ।५६ आपवादिक परिस्थिति में जैनागमों में यह भी विधान मिलता है कि भिक्षु पहले स्वामी की आज्ञा लिए बिना ही उचित स्थान में ठहर जाए और बाद में स्वामी (मालिक) की आज्ञा लेने का प्रयास करे ।५७ ___आचारांग में उत्सर्ग विधान यह है कि भिक्षु को त्रिकरण और त्रियोग से ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए ।५८ ब्रह्मचर्य के पालक महाव्रती मुनि के लिए नवजात कन्या का स्पर्श तक निषिद्ध है। किन्तु अपवाद मार्ग यह भी है कि भिक्षु नदी में डूबती हुई साध्वी को बचाने की दृष्टि से पकड़ कर बाहर निकाल सकता है।५९ इसी तरह यदि किसी साध्वी को सर्प ने काटा हो और अन्य कोई उपचारमार्ग न हो तो वह उसे छूकर उसका उपचार भी कर सकता है ।६० इसी प्रकार ब्रह्मचर्य पालन के लिए दूध-दही आदि सरस ( रसप्रणीत ) भोजन के सम्बन्ध में भी उत्सर्ग-अपवाद का विधान है । सामान्यतया भिक्ष को रस प्रणीत आहार-पानी नहीं करना चाहिए। किन्तु विशेष परिस्थिति में वह दूध, दही आदि रस, आहार-पानी का सेवन कर सकता है। इस प्रकार उत्सर्ग अपवाद दोनों का उद्देश्य एक ही है-संयम की साधना। ___ आचारांग में औत्सर्गिक साधना की दृष्टि से यह कहा गया है कि भिक्षु मन, वचन और काया से किसी भी प्रकार का परिग्रह ( संग्रह) स्वयं न रखे, दूसरों से न रखवाए और रखने वाले का अनुमोदन भी न करे ।६२ परन्तु साथ ही अपवाद मार्ग में साधक के सामर्थ्य एवं परिस्थिति के अनुसार उसमें एक से तीन वस्त्र या पात्र रखने का विधान भी है। इस प्रकार उत्सर्गतः जहाँ एक ओर आचारांग में अचेल धर्म का उल्लेख मिलता है,६३ वहीं दूसरो ओर आपवादिक स्थिति में सचेलत्व का समर्थन भी है।४ वर्तमान सन्दर्भ में परिग्रह वृत्ति को देखते हुए अटपटा-सा लगता है कि कहाँ तो आचारांग का अचेल धर्म अथवा न्यूनतम वस्त्र-पात्र रखने का विधान तथा वे भी अल्पतम मूल्यवाले और कहाँ आज का साधुसाध्वी वर्ग । संग्रह प्रवृत्ति बढ़ती चली जा रही है। वस्त्र-पात्रादि तथा अनेक फैशनेबुल कीमती वस्तुओं से भरे पड़े हैं पेटी-पिटारे और कपाट ? वर्तमान स्थिति को देखते हुए यह कहे बिना नहीं रहा जाता कि आज का अधिकांश साधु-साध्वी वर्ग इस भयंकर परिग्रहरूप दसवें महाग्रह से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy