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नैतिकता की मौलिक समस्याएँ और आचारांग : ५३
है। श्रमण के लिए यह उत्सर्ग विधान है कि वह जीवन भर त्रिकरण
और त्रियोग से किसी भी जीव की हिंसा न करे न करवाए और न करने वालों का अनुमोदन करे ।२८ क्योंकि सभी को प्राण प्रिय हैं और मृत्यु अप्रिय है ।२९ भिक्षु हिंसा का सर्वथा त्यागी होता है, अतः वह किसी भी जीव को कष्ट पहुंचे ऐसा आचरण नहीं करता। इसी बात को ध्यान में रखकर आचाराङ्ग में अनेक स्थानों पर कहा गया है कि वह लता, पेड़ आदि कोई भी हरी वनस्पति मात्र को न छुए । परन्तु उसमें अपवादमार्ग का भी विधान मिलता है। आपवादिक स्थिति में मुनि लता, पेड़, तृण, गुच्छ आदि को पकड़कर अपने प्राण बचा सकता है।३० इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि भविष्य में होने वाली स्व-पर हिंसा से बचने की दृष्टि से ही वृक्षादि का अवलम्बन लेने का निर्देश दिया गया है । यह अहिंसा का अपवाद है जो मूलतः हिंसा से बचने के लिए ही है।
पूर्ण अहिंसाव्रती मुनि के लिए मन, वचन और काया से कच्चे (सचित्त ) जल का स्पर्श मात्र भी निषिद्ध है। इसी कारण उसके लिए वर्षा में बाहर जाने-आने का निषेध है। कच्चे जल का स्पर्श न किया जाय, यह उत्सर्ग विधान है, किन्तु साथ ही अपवाद मार्ग का विधान भी है । कहा गया है कि विहार करते हुए यदि रास्ते में नदी पड़ जाए और जाने का अन्य कोई मार्ग न हो तो मुनि पूर्ण विवेकपूर्वक पैदल चलकर नदी पार कर सकता है। यदि नदी में पानी अधिक है तो वह नोका के द्वारा भी जा सकता है। ३२ ऐसा करने पर वह प्रायश्चित का अधिकारी नहीं माना जाता। आचाराङ्गवृत्ति के अनुसार साधु वर्षा में मल-मूत्र विसर्जन के लिए बाहर आ जा सकता है।33 दशबैकालिक३४ और योगशास्त्र स्वोपज्ञवृत्ति५ में भी यही बात कही गई है । आचार्य हेमचन्द्र योगशास्त्र की स्वोपज्ञवृत्ति में लिखते हैं कि बाल, वृद्ध और रोगी के लिए बरसते हुए पानी में यदि भिक्षा हेतु जाना पड़े तो मुनि विवेकपूर्वक जा सकता है । ऐसी स्थिति में वह जलकायिक जीवों का उतना विराधक नहीं माना जाता है । ___आचाराङ्ग में कहा गया है कि भिक्षु औद्देशिक ( आधाकर्मादि दोषयुक्त) आहार, वस्त्र-पात्रादि कदापि स्वीकार न करे । इसका कारण यह है कि उससे जीव-हिंसा होती है। आचाराङ्ग वृत्तिकार ने प्रथम श्रुतस्कन्ध के छठे अध्ययन के द्वितीय उद्देशक के आधार पर उद्गम, उत्पादन आदि सभी दोषों को टालकर निर्दोष आहार ग्रहण करने की बात कही है। उत्सर्गतः साधु को निर्दोष आहार ही ग्रहण
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