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नैतिकता को मौलिक समस्याएँ और आचाराङ्ग : ५१
प्रकार का परिवर्तन सम्भव नहीं है । पाश्चात्य दार्शनिक डीवी का विचार आचाराङ्ग के बहुत निकट है । उसका कथन है कि नैतिकता का शरीर परिवर्तनशील और सापेक्षिक है परन्तु नैतिकता की साध्यरूपी आत्मा अपरिवर्तनशील और निरपेक्ष है । २० नैतिकता का सामान्य स्वरूप स्थायी रहता है, किन्तु नैतिकता का विशेष स्वरूप समयानुरूप परिस्थितियों के परिवर्तन के साथ बदलता रहता है ।
काट का कथन है कि जो कर्म शुभ है वह सदैव शुभ रहेगा और जो अशुभ है वह सदैव अशुभ रहेगा । देशकाल के अनुसार नैतिक आचरण का मूल्य परिवर्तित नहीं होता ।
नैतिक आदर्श निरपेक्ष होता है, जबकि नैतिक जीवन सापेक्ष । नेतिक आदर्श की प्राप्ति के साधन भी सापेक्ष होते हैं । अतः आदर्शमूलक नैतिकता को निरपेक्ष और साधनामूलक नैतिकता को सापेक्ष कह सकते हैं । साधारणतया सामान्य या मूलभूत नियम ही निरपेक्ष एवं अपरिवर्तनीय माने जा सकते हैं, विशेष नियम सापेक्ष और परिवर्तनीय ही होते हैं । हाँ, अनेक परिस्थितियों में मौलिक या सामान्य नियमों के भी अपवाद हो सकते हैं और वे नैतिक भी हो सकते हैं, फिर भी अपवाद कभी भी नियम का स्थान नहीं दिया जा सकता । २१
नैतिक आचरण के आन्तरिक और बाह्य दो पक्ष हैं । उसका संकल्पात्मक पक्ष आन्तरिक होता है । वह सदैव परिस्थिति-निरपेक्ष होता है। जबकि उसका बाह्य पक्ष आचरणात्मक होता है । वह परिस्थितिसापेक्ष होता है ।
हिंसा का संकल्प सदैव अनैतिक होता है । किसी परिस्थिति में वह धर्म या नैतिक नहीं हो सकता, किन्तु हिंसा का कर्म सदैव अनैतिक और अनावरणीय ही हो, यह आवश्यक नहीं है ।
आचाराङ्ग में निरपेक्ष नैतिकता और सापेक्ष नैतिकता दोनों दृष्टिकोण उपलब्ध होते हैं । एक ओर तो वह 'जे आसवा ते परिस्सवा' कहकर सापेक्ष नैतिकता को स्वीकार करता है और दूसरी ओर वह 'एस धम्मे सुद्ध निच्चे सासए' कहकर निरपेक्ष नैतिकता पर जोर देता है । एक ओर वह कहता है कि अहिंसा सार्वकालिक और सार्वलौकिक शाश्वत धर्म है तो दूसरी ओर वह यह भी कहता है कि जो आचार बन्धन का हेतु है, वही आचार मुक्ति का हेतु बन जाता है और जो मुक्ति का हेतु है, वही बन्धन का निमित्त बन जाता है। वस्तुतः आचाराङ्ग के अनुसार वृत्यात्मक या संकल्पात्मक नैतिकता निरपेक्ष
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