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५० : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन निरपेक्ष नैतिकता और आचाराङ्ग :
सापेक्ष नैतिक नियम जहाँ देश, काल आदि की दृष्टि से परिवर्तन शील होते हैं, वहाँ निरतेक्ष नैतिक नियम अपरिवर्तनीय माने जाते हैं। जीवन के जो शाश्वत मूल्य हैं, उनमें परिवर्तन कदापि संभव नहीं, ऐसा कुछ विचारक मानते हैं और इस विचारधारा का अपना महत्त्व है। जैनधर्म में भी पर्यायाथिक और द्रव्यार्थिक दृष्टिकोणों के आधार पर तत्त्वों का विवेचन एवं पदार्थों का विश्लेषण हुआ है। जैन-दर्शन में इसके लिए दो शब्द सर्वत्र प्रचलित हैं-व्यवहार और निश्चय। निश्चय दृष्टि को समझे बिना व्यवहार दृष्टि को अपनाने में भ्रांति हो सकती है। वास्तव में सापेक्ष और निरपेक्ष या व्यवहार और निश्चय, दोनों दृष्टिकोण परस्पर पूरक हैं।
आचाराङ्ग में भी निरपेक्ष नैतिकता दृष्टिगोचर होती है । इसमें कहा है कि अतीत, अनागत और वर्तमान के सभी तीर्थंकरों का धर्म-प्ररूपण एक ही होता है कि किसी भी प्राणी-जीव या सत्त्व का वध नहीं करना चाहिए, बलात् उन्हें न शासित करना चाहिए और न उन्हें परिताप देना चाहिए । यही शुद्ध, नित्य और शाश्वत धर्म है ।१९ आत्मज्ञ अर्हतों ने सबके लिये इस अहिंसा धर्म का प्रतिपादन किया है। यह सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक निरपेक्ष नीति है ।
यदि नैतिकता में निरपेक्षता और अपरिवर्तन शीलता का तत्त्व नहीं है तो फिर सर्वोच्च शुभ या नैतिक आदर्श का कोई औचित्य नहीं रह जायेगा।
इससे यह स्पष्ट है कि नैतिकता के दो पहलू हैं-एक परिवर्तनीय और दूसरा अपरिवर्तनीय । अहिंसा शाश्वत और अपरिवर्तनीय धर्म है। किसी भी युग में दूसरों को पीड़ा पहुँचाना, मारना, सताना या उनका शोषण करना धर्म नहीं हो सकता । अहिंसा आत्म धर्म है और आन्तरिक रूप में सदैव निरपेक्ष धर्म है। वह त्रैकालिक सत्य धर्म है, जैसे-वृक्ष प्रतिवर्ष पतझड़ के मौसम में पत्र-पुष्पादि की दृष्टि से बाह्य रूप में बदलता रहता है किन्तु मूल रूप में वह स्थायी रहता है, वैसे ही, सापेक्ष रूप में लोक धर्म बदलता रहता है, परन्तु मौलिक रूप में वह शाश्वत रहता है । जिस प्रकार देह के बदलने पर भी आत्मा नहीं बदलती उसी प्रकार अहिंसा भी नित्य एवं अपरिवर्तनीय होने के नाते धर्म की आत्मा मानी गई है। उसके मौलिक या निरपेक्ष रूप में किसी भी
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