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नैतिकता की मौलिक समस्याएँ और आचाराङ्ग : ४९ है कि लोक व्यवहार में वस्तु, घटना या स्थिति के महत्त्व की उपेक्षा की जाय ।
जैनाचार्यों ने मनोभावों के साथ ही देश, काल ओर परिस्थिति को भी कर्मों के नैतिक प्रभाव का आधार बताया है । आचरण के शुभाशुभत्व के सन्दर्भ में नैश्चयिक दृष्टि से मनःस्थिति या भावों का जितना महत्त्व है, व्यावहारिक दृष्टि से उतना ही महत्त्व देश, काल और परिस्थिति का भी है । आचार्य हरिभद्र सूरि का कथन है कि मनोभावों की विशुद्धिपूर्वक द्रव्य, क्षेत्र और काल के अनुकूल आचरण करना चाहिए । जिससे स्व-पर कल्याण रूप फल सम्पन्न हो वही व्यवहार आचारणीय है । आचाराङ्ग टीका में भी कहा है कि जिस देश काल में जो वस्तु धर्म होती है वही परिस्थिति विशेष में या तद्भिन्न देश काल में अधर्मं भी हो सकती है ।
उत्तराध्ययन चूर्ण में कहा है कि तीर्थंकर देशकालानुरूप धर्मोपदेश करते हैं । " अष्टकप्रकरण में आचार्य हरिभद्र कहते हैं कि देश, काल और रोगादि के कारण कभी-कभी ऐसी विशिष्ट परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं कि अकार्य कार्य बन जाता है और कार्य अकार्य बन जाने से त्याज्य हो जाता है' अर्थात् जो विधान है वह निषेध बन जाता है और जो निषेध है वह विधान बन जाता है । तात्पर्य यह कि तीर्थंकरों ने किसी कार्य के शुभाशुभ के सम्बन्ध में एकान्तवाद पकड़कर चलने के लिए नहीं कहा है । प्रशमरति प्रकरण में भी यही बात कही गई है कि देश काल, व्यक्ति और परिस्थिति के आधार पर ग्राह्य वस्तु भी अग्राह्य हो जाती है और परिस्थिति बदलने पर अग्राह्य वस्तु भी ग्राह्य हो जाती हैं।
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न केवल आचाराङ्ग अपितु अन्य भारतीय एवं पाश्चात्य विचारधारा में भी यह धारणा स्वीकृत रही है कि नैतिक नियम देशकाल और व्यक्ति सापेक्ष हैं 199
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महाभारत में अनेक स्थानों पर नैतिक नियमों की सापेक्षता का प्रतिपादन हुआ है। गीता १२ में भी देशकालगत सापेक्षता को मान्यता दी गई है । गीतारहस्य 13 के कर्म-जिज्ञासा नामक प्रकरण में इससे सम्बन्धित काफी चर्चाएँ हैं । बुद्ध ४ का दृष्टिकोण भी का समर्थक रहा है । हान्स १५, मिल " जानडीवी", ब्रेडले ", स्पेन्सर आदि पश्चिमी विचारक भी आचरण के नैतिक नियमों को सापेक्ष
सापेक्ष नैतिकता
मानते हैं ।
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