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________________ नैतिकता के तत्त्वमीमांसीय आधार : ४१ का निरोध कर देता है । १२२ यह भी कहा गया है कि हिंसादि आस्रव द्वारों से निवृत्त ( विरत ) मुनि के लिए जन्ममरणादि रूप दुःख मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं । १२3 इस प्रकार साधक संवर की साधना से कर्मों के आगमन को रोककर निर्जरा की साधना से पूर्वबद्ध कर्मों को क्षीण कर देता है। निर्जरा: निर्जरा का अर्थ है-जर्जरित कर देना, क्षीण कर देना। दूसरे शब्दों में पूर्व संचित कर्मों को आत्मा से पृथक् कर देना ही निर्जरा है आचाराङ्ग में कहा गया है कि कर्मों का प्रकम्पित करने वाला ( विधूत कल्पी ) महर्षि पूर्वोपार्जित कर्मों को सुखाकर क्षय कर डालता है । १२४ इसके अतिरिक्त तप को भी कर्म-निर्जरा का कारण मानकर कहा गया है कि तप-संयम के द्वारा रागादि बन्धनों को छिन्न-भिन्न कर साधक निष्कर्म-दर्शी अर्थात् कर्मरहित हो जाता है और वह कर्म रहित आत्मा (निष्कर्मदर्शी) मृत्यु से मुक्त हो जाता है ।१२५ इस प्रकार नए कर्मों के निरोध और पुराने कर्मों के क्षय से साधक चैतन्य स्व-स्वरूप को उपलब्ध हो जाता है जो दुःखातीत अवस्था है। मोक्षः मुक्ति के सम्बन्ध में आचाराङ्ग में 'निर्वाण', 'परिनिर्वाण', 'मोक्ष' 'प्रमोक्ष', अथवा 'मुक्ति' आदि से सम्बन्धित यत्र-तत्र कुछ सूत्र तो उपलब्ध होते हैं किन्तु मोक्ष के स्वरूप के सम्बन्ध में ऐसा सुव्यवस्थित वर्णन उसमें उपलब्ध नहीं है जैसा कि उत्तरकालोन जैन आगमों एवं ग्रन्थों में मिलता है। आचाराङ्ग में 'मुक्ति' के स्थान के सम्बन्ध में कोई स्पष्ट निर्देश नहीं है किन्तु मुक्तात्मा के स्वरूप का मार्मिक विवेचन लोकसार नामक अध्यन के छठे उद्देशक में है जिसकी विस्तृत चर्चा हम मुक्तात्मा के स्वरूप के प्रसंग में कर चुके हैं । आचाराङ्ग के अनुसार व्यक्ति का चरम लक्ष्य मुक्ति है। उसने सुव्यवस्थित रूप से मोक्षमार्ग ( मुन्तिमग्गं ) का प्रतिपादन किया है और व्यक्ति को यह प्रेरणा दी है कि वह 'मोक्ष' प्राप्त करे । आचाराङ्ग में मुक्ति का तात्पर्य कर्म, दुःख एवं बन्धन से मुक्ति है। संसार के जन्ममरण रूप दुःखों से छुटकारा पा लेना ही मुक्ति है। आचाराङ्ग जन्ममरण के चक्राकार ( वृत्त ) मार्ग के अतिक्रमण पर बल देता है । १२६ उसके अनुसार मुक्ति का आशय है-कर्म मुक्ति, राग-द्वेष से मुक्ति, संसार के आवर्त और तज्जन्य दुःखों से मुक्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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