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________________ नैतिकता के तत्त्वमीमांसीय आधार : ३९ उपलब्ध नहीं है तथापि परवर्ती जैन ग्रन्थों में इनकी सुविस्तृत चर्चा निष्कर्षतः आचारांङ्ग का कर्म-सिद्धान्त यह सिखाता है कि जीव जैसा कर्म करता है उसी के अनुरूप उसे कर्म-फल मिलता है ( As you Sow, so you must reap ) इस मुहावरे में आचारांग के समूचे कर्मसिद्धान्त का सार निहित है। यही कर्म-सिद्धान्त व्यक्ति को अपने आचरण के प्रति उत्तरदायी बनाता है, और इस प्रकार नैतिक उत्तरदायित्व की अवधारणा को परिपुष्ट बनाता है। बन्धन से मुक्ति के उपाय : _ आचाराङ्ग में न केवल कर्म-बन्ध एवं उनके कारणों का वर्णन है, अपितु उन कर्मों से मुक्त होने के उपाय भी वर्णित हैं। आचाराङ्ग में कहा है कि कुशल पुरुषों ने दुःख एवं दुःख के हेतु से मुक्त होने का मार्ग ( दुःख-परिज्ञा ) बताया है ।१७ यद्यपि यह सही है कि आत्मा कर्मों के कारण मलिन बनी हुई है, किन्तु वह साधना से परिशुद्ध हो जातो है। इस सन्दर्भ में आचारांग का कथन है कि जिस प्रकार अग्नि मिट्टी मिश्रित चांदी के मैल को जलाकर उसे शुद्ध बना देती है, उसी प्रकार सभी आसक्तियों ( संगों) से रहित सम्यक् ज्ञान पूर्वक आचरण करने वाला धैर्यवान और सहिष्णु साधक साधना के द्वारा आत्मा पर लगे हुए कर्म-मल को दूरकर उसे निर्मल और परिशुद्ध बना लेता है। १८ ज्ञानपूर्वक आचरण करने वाला, निराकांक्षी और मैथुन से सर्वथा निवृत्त मुनि दुःखरूप शय्या अर्थात् कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है । ११९ आचाराङ्ग का कथन है कि जिस प्रकार महासमुद्र को भुजाओं से तैरकर पार कर पाना कठिन है उसी प्रकार संसार सागर को पार करना कठिन है। अतः (ज्ञपरिज्ञा से ) संसार के स्वरूप को जानकर (प्रत्याख्यानपरिज्ञा से ) उसका परित्याग करे। इस तरह त्याग करने वाला ज्ञानी मुनि कर्मों का क्षयकर्ता कहलाता है । १२० । ___ सामान्यतया जैन दर्शन में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के रूप में त्रिविध मोक्षमार्ग का विवेचन है। यद्यपि उत्तराध्ययन सूत्र में एवं आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में, दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप के रूप में चतुर्विध मोक्षमार्ग का विवेचन भी उपलब्ध होता है। इन सबसे भिन्न आचाराङ्ग में एक अन्य प्रकार से भी मोक्ष मार्ग का विवेचन है। उसमें कहा गया है-'निक्खित्त दण्डाणं समादियाणं पण्णाणमाणं इह मुत्तिमग्गे' अर्थात् हिंसा से विरति ( अहिंसा ), प्रज्ञा और समाधि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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