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________________ ३८ : आचाराङ्ग का नोतिशास्त्रीय अध्ययन आचाराङ्ग में उक्त कर्म-स्रोतों की चर्चा यत्र-तत्र बिखरे रूप में मिलती है। उसमें कर्म-बन्ध के कारणों की सुव्यवस्थित विवेचना नहीं है। उसमें कहीं अतिपातस्रोत ( हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह ) को०६, कहीं त्रियोगरूपस्रोत (मन-वचन-और काया की प्रवृत्ति ) को १०७, कहीं 'रूवंसि वा छणंसिवा' कहकर हिंसा, झठ, चोरी आदि को तथा चक्षुरिन्द्रिय, श्रोत्रेन्द्रिय आदि पांचों इन्द्रियों को०८, कहीं मात्र हिंसा को१०९, कहीं अज्ञान और प्रमाद को'१०, कहीं आशा और स्वच्छंदता को११, कहीं केवल राग को१२, कहीं मोह को१३, कहीं लोभ और कहीं कामासक्ति'१४ या विषयासक्ति को कर्म-स्रोत के रूप में बताया गया है। उक्त सूत्रों से सामान्यतः यह स्पष्ट नहीं होता कि कौन किसका साक्षात् कारण है और कौन परम्परया कारण है। इन सबके मूल में अज्ञान या राग ही मुख्य कारण प्रतीत होता है । आचाराङ्गकार ने कहीं अलग-अलग ओर कहीं इन सबको एक दूसरे के साथ जोड़कर सम्मिलित रूप से कर्मबन्ध का हेतु बतलाया है। उसका कारण यह है कि जहाँ जैसा प्रसंग आया तदनुरूप उन कारणों का वर्णन किया गया है। द्वितोय'१५ श्रु तस्कन्ध में भी अनेक स्थानों पर कर्मबन्ध के हेतुओं का उल्लेख मिलता है । इससे यह सिद्ध होता है कि आचाराङ्ग के अनुसार सम्पूर्ण लोक कर्मस्रोत से परिव्याप्त हैं, किन्तु ज्ञानी पुरुष संसार के कारणभूत भावस्रोतों का सम्यक् रूप से निरीक्षण कर उनसे विरत हो जाता है ।११। वास्तव में सभी संसारी जीवों में निरन्तर कर्मास्रव हुआ करता है। फिर चाहे वह ईर्यापथिक हो, अथवा साम्परायिक । कषायरहित अवस्था में होने वाला कर्मास्रव ईपिथिक होता है, वह बन्धन रूप नहीं होता, जबकि कषाय प्रेरित कर्मास्रव साम्परायिक कहलाता है जो बन्धन का कारण है। बन्ध: __ कषायभाव से आये हुए कर्म-परमाणुओं का आत्म-प्रदेशों में प्रविष्ट हो जाना या आत्म-प्रदेशों के साथ क्षीर-नोरवत् एकमेक हो जाना ही बन्ध है। जोव अपने वैभाविक भावों से कर्म-परमाणुओं का बन्ध करता रहता है। जैसे चिकने पदार्थ पर रज कण आकर चिपक जाते हैं उसी प्रकार राग-द्वेष की चिकनाहट के कारण कर्म-रज आत्मा पर चिपक जाते हैं अर्थात् आत्मा के साथ संश्लिष्ट हो जाते हैं और यही बन्ध है। जैनधर्म में बन्ध के चार भेद वर्णित हैं-प्रकृतिबन्ध, प्रदेशबन्ध, स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध । यद्यपि इनका विस्तृत विवेचन आचाराङ्ग में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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