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________________ नैतिकता के तत्त्वमीमांसीय आधार : ३७ कर्म का स्वरूपः सामान्यतया 'कर्म' शब्द क्रिया या कार्य के अर्थ में प्रयुक्त होता है। पुराणों में 'कर्म' व्रत-नियम आदि धार्मिक अनुष्ठानों के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । मीमांसकों के अनुसार यज्ञादि क्रियाओं के अर्थ में 'कर्म' शब्द का प्रयोग हुआ है। आध्यात्मिक क्षेत्र में 'कर्म' का तात्पर्य उस क्रिया से है, जो आत्मा को परतंत्र बनाती है। आचार्य देवेन्द्र सूरि ने कर्म की परिभाषा में कहा है 'कोरइ जिएण हेउहिं जेणं तो भण्णए कम्म' -मिथ्यात्व, कषायादि कारणों से जीव के द्वारा जो किया जाता है, वह कर्म है । १०१ कर्म का यह लक्षण द्रव्य कर्म और भावकर्म दोनों पर घटित होता है । जीव से सम्बद्ध कार्मण-वर्गणा के पुद्गल द्रव्यकर्म और रागद्वेषात्मक वैभाविक भावों या कर्म के हेतुओं को भावकर्म कहते हैं। ___ जैन धर्म के अनुसार कर्म का आत्मा के साथ अनादिकालीन संबंध है । प्रतिसमय यह जीव पुराने कर्मों को क्षीण करता हुआ नवीन कर्मों का उपार्जन ( बन्ध ) करता रहता है। सहज ही यह जिज्ञासा होती है कि किन कारणों से कर्म-बन्ध होता है ? आस्रव : आचाराङ्ग में आस्रव को कर्म-बन्ध का कारण बतलाया गया है। उसमें 'आसव' और 'परिस्सव' इन दो शब्दों का प्रयोग हुआ है। आस्रव बन्धन का हेतु है और 'परिस्रव' मुक्ति का। ___ आस्रव का तात्पर्य है-'आसमन्तात् स्रवति कर्म अनेनेति आस्रवः' जिसके द्वारा चारों ओर से कर्म आते हैं उसे आस्रव कहते हैं अथवा 'आसूयते-उपदीयते कर्म अनेनेति आस्रवः' अर्थात् जिसके द्वारा कर्म ग्रहण किये जाते हैं वह आस्रव है । आचाराङ्ग के टीकाकार ने 'आस्रव' शब्द की व्याख्या में कहा है 'आस्रवत्यष्ट प्रकारं कर्म यैरारम्भस्ते अर्थात् जिन ( मिथ्यात्वादि ) आरम्भों या स्रोतों के द्वारा आठ प्रकार के कर्म आते हैं अर्थात् आत्म-प्रदेशों के साथ एकमेक हो जाते हैं उन स्रोतों को 'आस्रव' कहते हैं। १०२ इस व्याख्या से द्रव्यास्रव और भावास्रव दोनों का स्वरूप स्पष्ट होता है। विभिन्न जैन ग्रन्थों में कर्म-स्रोतों के मुख्य रूप से निम्नांकित कारण बताए गये हैं-मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, योग और प्रमाद । १०3 प्रश्नव्याकरणसूत्र'०४ के अनुसार हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह ये पांच आस्रवद्वार हैं। नवतत्त्व१०५ दोपिका के अनुसार आस्रव के मुख्य चार भेद हैं-इन्द्रियानव, कषायास्रव, अवतास्रव और योगास्रव । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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