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________________ to do nic ३६ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन __ आचाराङ्ग के अनुसार जीव बन्धन में है। वह पापकर्मों से आबद्ध है। ४ कर्म के फलस्वरूप वह जन्म-मरण रूप संसार में भटक रहा है और अनेक प्रकार के सुख-दुःख भोग रहा है। इससे यह स्पष्ट होता है कि आचाराङ्ग के अनुसार कर्म ही संसार-भ्रमण का मूल हेतु है । आचाराङ्ग में कहा गया है कि भगवान् ने संसार के उपादान कारण कर्म को ढूंढ निकाला और उसके स्वरूप को जानकर पापकर्म से विलग हो गए ।९५ आचाराङ्ग नियुक्ति में कहा है कि 'संसारस्स उ मूलं कम्म तस्सवि हुतिय कसाया' संसार का मूल कर्म है और कर्म का मूल कषाय है।६ कर्म से ही समस्त उपाधियां ( शरीर, आकृति, वर्ण, नाम, रूप, सुख-दुःख का अनुभव एवं जन्म-मरण आदि ) उत्पन्न होती हैं। संसारी या बद्ध जीव इन सभी उपाधियों से जकड़ा है, जबकि कर्मरहित आत्मा का न तो कोई व्यवहार होता है और न कोई कर्म जनित उपाधियां ही रहती हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि आत्मा के बन्धन का एकमात्र कारण कर्म ही है। जब तक कर्म का यह प्रवाह रहेगा तब तक आत्मा बन्धन (दुःख) से मुक्त नहीं हो सकती, निरूपाधिकदशा को प्राप्त नहीं हो सकती। आचाराङ्ग कर्म को ही दुःखों का साक्षात् कारण स्वीकार करते हुए कहता है कि 'मुणी मोणं समादाय धुणे कम्मसरोरगं' अर्थात् मुनि मौन ( संयम ) स्वीकार कर कर्म-शरीर का नाश कर डाले।९९ यह कर्म-शरीर ही दुःख का मूल है। यह स्थूल ( भौतिक ) शरीर के नष्ट हो जाने पर भी नष्ट नहीं होता और स्थूल शरीर की प्राप्ति में कारणभूत भी होता है। शरीर को जब तक क्षीण नहीं किया जाता तब तक मात्र इस औदारिक (भौतिक) शरीर को क्षीण करने से कोई लाभ नहीं है। क्योंकि कर्म-शरीर के आधार पर ही जीव विभिन्न योनियों में नये-नये भौतिक शरीर धारण करता है और इस प्रकार संसार में भटकता रहता है। उसके नष्ट हो जाने पर जीव का संसार-परिभ्रमण अपने आप समाप्त हो जाता है, क्योंकि जड़ काट देने पर वृक्ष अपने आप सूख जाता है। इसीलिएआचाराङ्ग में कर्मशरीर को धुन डालने पर इतना जोर दिया गया है । वह कहता है कि 'कम्मं च पडिलेहा'१00, अर्थात् कर्म का प्रतिलेखन करना चाहिए। कर्म के प्रतिलेखन का अर्थ है-कर्म की समीक्षा, अथवा कर्म के स्वरूप को जानना। कर्म के स्वरूप को सम्यकरूप से जानकर बन्धन में डालने वाले हेतुओं से बचना ही आचाराङ्ग की नैतिक शिक्षा का सार है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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