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________________ नेतिकता के तत्त्वमीमांसीय आधार : ३३ आचाराङ्ग के अनुसार मनुष्य संकल्प करने एवं उसके अनुरूप आचरण करने में स्वतंत्र है। इसलिए वह अपने बन्धन के लिए स्वयं उत्तरदायी है। वास्तव में यह आत्मा मकड़ी की भाँति दुःखों का जाल बिछाकर स्वयं ही उलझती है अर्थात् वह स्वयं ही कर्मों को उत्पन्न करती है और उससे आवृत्त होतो है, तथा स्वयं ही तप-त्याग, सत्य-संयमानुष्ठान आदि के द्वारा कर्म-प्रवाह को रोक देती है और पूर्णबद्ध कर्मों को छिन्नभिन्न कर शुद्ध हो जाती है ।७४ न केवल आचाराङ्ग अपितु सम्पूर्ण अध्यात्मवादी दर्शन समवेत स्वर से स्वीकार करते हैं कि बन्धन सदा बन्धन नहीं रह सकता। वह तोड़ा जा सकता है और खोला जा सकता है। आचाराङ्ग में कहा है कि 'सन्तिपाणा पुढो सिया' प्रत्येक प्राणी आत्मा की (स्वतंत्र ) सत्ता है७५ और साथ ही प्रत्येक आत्मा अनन्तशक्ति सम्पन्न है। यदि वह चाहे तो कर्म की परतंत्रता को तोड़कर स्वतंत्र हो सकती है। फिर भी आचाराङ्ग में एक स्थान पर जो यह कहा गया है कि 'एस पसंसिए जे बद्धे पडिमोयए'७६ वही वीर प्रशंसित होता है जो बन्धन से मुक्त होता है या बद्ध को मुक्त करता है। तीर्थंकर या गुरु किसी के बन्धन को तोड़ते नहीं हैं, प्रत्युत बन्धन तोड़ने का मार्ग या उपाय बता देते हैं। उपादान तो जीव स्वयं ही है । बन्धन तोड़ने का पुरुषार्थ स्वयं आत्मा को ही करना होगा। ( सामान्यतया मनुष्य अपने उत्थान के लिए बाहरी तत्त्वों की अपेक्षा रखता है। आचाराङ्ग हमें यह सिखाता है कि आध्यात्मिक उत्थान के लिए बाह्य जगत् में भटकना आवश्यक नहीं है। वह कहता है कि सच्चा मित्र तो भीतर ही बैठा है। उसका साक्षात्कार करने के लिए हे परम चक्षुष्मान् पुरुष ! तुझे पुरुषार्थ करना चाहिए ।७७) (परमुखापेक्षिता से आत्मा पराश्रित एवं निर्बल बनती है। स्वावलम्बी साधक दूसरों पर निर्भर नहीं होता, वह अपने आप में और अपनी उपलब्धियों में ही सन्तुष्ट रहता है। सत्य-प्राप्ति के लिए वह दूसरों के आलम्बन की अपेक्षा नहीं रखता है, अपितु निरावलम्बी होकर अपनी साधना और संकल्पशक्ति के बल पर बन्धन मुक्त हो जाता है । आचाराङ्ग में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सत्य का साक्षात्कार उसी ने किया है जो ( अनुकूलप्रतिकूल बाधाओं से ) अभिभूत नहीं होता, जो अभिभूत नहीं होता वही निरवलम्ब होने में समर्थ होता है। वास्तव में आत्मोत्थान वही कर सकता है जो पुरुषार्थी है । इसी कारण आचाराङ्ग में आत्मा को 'पुरुष' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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