________________
३४ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन शब्द से सम्बोधित किया गया है। साधक को अपनी पौरुषता का भान कराते हुए आचारात में कहा गया है कि 'पूरिसा! तुममेव मित्तं कि बहिया मित्तमिच्छसि ?' हे पुरुष ! तू स्वयं ही अपना मित्र है। फिर तू अपने ( आत्मस्वरूप) से बाहर मित्र कहाँ ढूँढ़ता है ? अर्थात् क्यों उनकी अपेक्षा रखता है७९ ? इस बात की पुष्टि उत्तराध्ययन में भी की गई है कि आत्मा ही अपना मित्र और शत्रु है, सुपथगामी आत्मा मित्र है और कुपथगामी आत्मा शत्रु है। इस सन्दर्भ में सन्त आनन्दघन जी का पद है कि पुरुष ! 'किस्य मझ नाम..... । हे प्रभो ! मेरा पुरुष नाम कैसे सार्थक हो सकता है ? पुरुष होते हए भी मेरी स्थिति पुरुषार्थ-हीन हो रही है। इससे स्पष्ट है कि आचाराङ्गका पुरुषार्थवाद का सिद्धान्त इस बात में विश्वास नहीं करता है कि परमात्मा किसी का उत्थान-पतन करता है। प्रत्येक जीव या आत्मा स्वयं ही अपने उत्थान-पतन के लिए उत्तरदायी है। जब वह स्वस्वभाव दशा में रमण करती है तब उसका उत्थान होता है और जब वह विभाव दशा में रमण करती है, तब उसका पतन होता है । बन्धन और मक्ति उसी के आश्रित है। अज्ञानी से ज्ञानी होने का और बद्ध से मुक्त होने का सामर्थ्य उसी में है। वह सामर्थ्य कहीं बाहर से नहीं आता है। वह तो उसी के भीतर है और उसके पुरुषार्थ से ही प्रकटित होती है। इसीलिए आचाराङ्ग में सूत्रकार कहते हैं कि 'बंध पमोक्खो सुज्झ अज्झत्थेव'८२ बन्ध और मोक्ष तेरे अपने अध्यवसाय पर निर्भर हैं। अतः इस सत्य या संयम को सम्यक्तया जानकर (आलीन गुप्त) तथा जितेन्द्रिय होकर परिव्रजन करना चाहिए। यह भी कहा है कि कृतार्थ वीर मुनि को सदा आगम के अनुसार पुरुषार्थ करना चाहिए। क्योंकि यहाँ जैसा कर्मक्षय करने का साधन है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है, अतः शक्ति का संगोपन नहीं करना चाहिए। पुनश्च कहा है कि इस कर्म-शरीर अर्थात् आन्तरिक विषय-विकारों के साथ युद्ध करने से क्या लाभ ? फिर इस ( आन्तरिक ) युद्ध के योग्य सामग्री निश्चित ही दुर्लभ है ।५ टीकाकार ने भी इसकी व्याख्या करते हुए यही कहा है कि काम क्रोधादि आन्तरिक वृत्तियों के साथ युद्ध करने से तुम कर्म-फल रहित हो जाओगे। __उत्तराध्ययन में भी यही बात कही गई है। बुद्ध भी आत्म-संग्राम को ही श्रेष्ठ मानते हैं।८ बुद्ध कहते हैं कि यह आत्मा स्वयं ही अपना स्वामी है, दूसरा कौन स्वामी हो सकता है दूसरा? स्वयं को भलीभाँति संयत कर लेने पर व्यक्ति आत्म स्वामित्व को पा लेता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org