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नैतिकता के तत्त्वमीमांसीय आधार : २७ बद्ध और मुक्त । कर्मों से आबद्ध आत्मा बद्धात्मा या संसारो आत्मा कहो जाती है और कर्म-रहित आत्मा मुक्तात्मा कहलाती है । मुक्तात्मा केवल ज्ञाता-द्रष्टा है जबकि संसारी आत्मा कर्ता-भोक्ता भी है।
आचारांग में मुक्तात्मा के स्वरूप का विवेचन तीन दृष्टिकोणों से हुआ है-विधेयात्मक, निषेधात्मक और अनिर्वचनीय । मुक्तात्मा का भावात्मक ( विधेय ) स्वरूप : ___ आचारांग में कहा गया है कि वह मुक्तात्मा अकेला है अर्थात् समस्त कर्मजन्य मल से रहित केवल शुद्ध स्वरूप है, शरीर-रहित है, श्वेदज्ञ है अर्थात् संवेदनशील है या क्षेत्रज्ञ है अर्थात् प्रज्ञायुक्त है। वह परिज्ञा, संज्ञा है अर्थात् चैतन्य स्वरूप है। टीकाकार ने इसको भी ज्ञान-दर्शन युक्त कहा है ।२४ जैनधर्म की यह स्पष्ट मान्यता है कि शुद्ध अवस्था में आत्मा समस्त कर्म जनित बाधाओं से रहित होती है और उसकी ज्ञानादि अव्यक्तशक्तियाँ पूर्णरूप से प्रकट हो जाती हैं। भावात्मक दृष्टिकोण से आचारांग में आत्मा के ज्ञान-दर्शनादि स्व-गुणों पर बल दिया गया है। आचार्य कुन्दकुन्द ने भी आत्मा की भावात्मक स्थिति का वर्णन करते हुए उसे शुद्ध, शाश्वत, अविनाशी तथा अनन्त चतुष्टय युक्त कहा है। २५ योग-दर्शन में भी 'क्लेशकर्म विपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेषः ईश्वरः'२६ कहकर मुक्तात्मा को कर्म से रहित कहा गया है। निषेधमुखेन आत्मा का स्वरूप :
आचारांग में मुक्तात्मा के स्वरूप का चित्रण निषेधमुख से ही अधिक हुआ है । उसमें कहा गया है कि वह ( मुक्तात्मा ) लम्बा नहीं है, छोटा नहीं है, गोल नहीं है, त्रिकोण नहीं है, चौकोन नहीं है और मण्डलाकार नहीं है । वह न कृष्ण है, न नील है, न लाल है, न पीत है और न शुक्ल है। यह न सुगन्धयुक्त है और न दुर्गन्धयुक्त है। वह न तिक्त है, न कटु है, न कषाय है न आम्ल है और न मधुर है। वह कर्कश नहीं है, मृदु नहीं है, गुरु भी नहीं है, लघु भी नहीं है। वह शांत भी नहीं है, उष्ण भी नहीं है, स्निग्ध भी नहीं है, रूक्ष भी नहीं है। वह शरीरवान् नहीं है, जन्मधर्मा नहीं है, और संगयुक्त भी नहीं है। वह न स्त्री है, न पुरुष है और न नपुसक है। वह न शब्द है, न रूप है, न गन्ध है, न रस है और न स्पर्श ही है ।२७ स्थानांग में भी कहा है कि वह वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श आदि से युक्त नहीं है ।२८ आचारांग की भाँति समयसार,२९ नियमसार,३० परमात्मप्रकाश१ आदि ग्रन्थों में भी आत्मा के स्वरूप पर
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