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२८ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन निषेधात्मक रूप से प्रकाश डाला गया है । अध्यात्म योगी सन्त आनन्दघन ने भी 'ना हम पुरुष ना हम नारी वरनन भाँति हमारो'३२...."आदि पदों में आत्मा के निषेधात्मक स्वरूप का वर्णन किया है। यही बात केनोपनिषद्,33 कठोपनिषद्४ मुण्डकोपनिषद्,3५ माण्डक्योपनिषद्,३६ बृहदारण्यकोपनिषद्,३७ ब्रह्मविघ्नोपनिषद्३८ श्वेताश्वतरोपनिषद्३९ में भो अन्य शब्दों में कही गई है। इसके अतिरिक्त सुबालोपनिषद्४० और भगवद्गीता १ में भी आचारांग के समान ही आत्मा को अछेद्य, अभेद्य अक्लेद्य और अहन्तव्य माना गया है। अनिर्वचनीय स्वरूप :
आचारांग में वर्णित मुक्तात्मा का यह निषेधात्मक स्वरूप अनिवार्यतया हमें उसकी अनिर्वचनीयता की ओर ले जाता है। उपनिषदों की भाँति 'नेति नेति' की यह शब्दावली आत्म-स्वरूप की अनिर्वचनीयता को सिद्ध करती है। आचारांग स्पष्ट रूप से कहता है कि वहाँ से सभी स्वर लौट आते हैं-अर्थात् वह ( आत्मा) शब्द के द्वारा प्रतिपाद्य नहीं है । वह तर्क गम्य नहीं है, बुद्धि उसे ग्रहण करने में समर्थ नहीं है । उसकी कोई उपमा नहीं है अर्थात् वह अनुपम है। किसी रूपक के द्वारा उसे बताया नहीं जा सकता । वह अरूपी सत्तावान है । वह पदातीत (अपद) है-अर्थात् कोई भी उसका पदवाचक नहीं है ।४२ तैत्तिरीय उपनिषद् में भी यहो कहा है कि 'यह वाणी द्वारा गम्य नहीं है, मन के द्वारा प्राप्य नहीं है, ऐसे आनन्दस्वरूप ब्रह्म की व्याख्या नहीं की जा सकती' । सन्त आनन्दधन भी आत्मा के अनिर्वचनीय स्वरूप की मीमांसा करते हए कहते हैं-'निसाणी कहा बताउं रे वचन अगोचररूप। रूपी कहुँ तो कछु नहीं बंधइ कइसइ अरूप, रूपारूपी जो कहुं प्यारे ऐसे न सिद्ध अनूप ।'४४ आत्मा की अमरता :
आत्मा को अमरता नैतिकता की मूलभूत अवधारणा है। आत्मा की नश्वरता का सिद्धान्त नैतिकता की बुनियाद को ही हिला देता है। इसीलिए आत्मा की अमरता को नैतिक दर्शन की मूलभूत अवधारणा कहा गया है, क्योंकि आध्यात्मिक विकास और कर्म-सिद्धान्त दोनों ही आत्मा की अमरता की अवधारणा पर खड़े हुए हैं। __ आत्मा अपने नैतिक आदर्श या चरम साध्य को एक ही जन्म में नहीं पा सकता। उसके लिए जन्म-जन्मान्तर की साधना अपेक्षित है।
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