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आचाराङ्गसूत्र स्वरूप एवं विषयवस्तु : १५ एवं आठवें उद्देशक में एकत्व भावना, वैयावृत्य तथा समाधिमरण का वर्णन है। नवां अध्ययन ( उपधान-श्रुत): ___ उपधान का अर्थ तपश्चर्या है। इस सम्पूर्ण अध्ययन में भगवान महावीर की तपोमयी साधना का उत्कृष्ट रूप देखने को मिलता है, जो श्रमण को आत्मपूर्णता के लिए अन्तिम क्षण तक जागरूक तथा स्थिरचित्त बने रहने की प्रेरणा देता है।
इस अध्ययन में चार उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में यह बताया गया है कि भगवान ने दीक्षा स्वीकार करने के पश्चात् यह संकल्प किया था कि मैं हेमन्त ऋतु में शरीर को वस्त्र से नहीं ढर्केगा। इसमें तेरह मास के बाद महावीर के वस्त्र-त्याग का भी वर्णन है। साथ ही इसमें भगवान की अहिंसक जीवन-शैली एवं समभाव की साधना का भो वर्णन है। द्वितीय एवं तृतीय उद्देशक में भगवान महावीर द्वारा आसेवित आसन एवं स्थान का निरूपण है। इनमें यह भी बताया गया है कि भगवान को कैसे-कैसे विकट स्थानों में रहना पड़ा और किन-किन परिस्थितियों में कैसे-कैसे कष्ट सहन करने पड़े। चतुर्थ उद्देशक में भगवान के कठोर तप एवं ध्यान-साधना का वर्णन करते हुए कहा गया है कि वे रूक्ष एवं नीरस भोजन करते थे। यह भी बताया गया है कि वे कई महीनों तक निर्जल एवं निराहार रहकर भी अपनी संयम-साधना में लीन रहते थे। द्वितीय श्रुतस्कन्ध :
द्वितीय श्रुतस्कन्ध में श्रमण के आचार-नियमों का वर्णन है। इसमें मुनि की भिक्षाचर्या की विधि तथा आहार, वस्त्र, पात्र एवं निवास सम्बन्धी नियमों की विस्तार से चर्चा की गई है। साथ ही श्रमणों के पारस्परिक व्यवहार के नियमों का निर्देश है। इस श्रुतस्कन्ध में श्रमणआचार के नियमों का पर्याप्त स्पष्टता एवं विस्तार के साथ विवेचन हुआ है तथा तप-ध्यान और समभाव की साधना एवं मानसिक शुद्धि के उपाय बताए गए हैं। इसकी पाँच चलाओं में से अन्तिम चूला 'आचारप्रकल्प' को इससे पृथक् कर दिया गया है जो आज निशीथसूत्र के नाम से जानी जाती है। शेष चार चूलाएँ सोलह अध्ययनों में विभक्त हैं। प्रथम एवं द्वितीय चूला में सात-सात तथा तृतीय एवं चतुर्थ चूला में
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