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________________ श्रमणाचार : २१५ प्राणिमात्र के प्रति दयाशील होता है । अतः बोलते समय उसे उनके हितों का ध्यान रखना चाहिए। किसी गाय, भैंस, हरिण, पशु-पक्षी, जलचर तथा पेड़-पौधे, वृक्ष-बगीचे, फल-फूल, वनस्पति और औषधि को देखकर ऐसी भाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिए जिससे उन जीवों को किसी तरह का कष्ट पहुँचे, उनका छेदन-भेदन हो या उनकी हिंसा हो । यथा - यह फल तोड़ने और खाने योग्य है, यह औषधि काटने योग्य है, यह बैल युवा है, यह वहन करने योग्य हैं, यह पुष्ट शरीर वाला है, दृढ़ संहनन वाला है, यह गाय प्रौढ़ है, दोहने योग्य है, वृक्ष काटने योग्य है । इस वृक्ष की लकड़ी स्तम्भ, महल, तोरण, अर्गला नोका आदि बनाने योग्य है, मुनि को ऐसी राग-द्वेष पूर्ण भाषा का प्रयोग न करके सदैव हितकारी, आदरपूर्ण भाषा का प्रयोग करना चाहिए | ३२ .१३५ आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के सव्वामगंध परिण्णायनिराम गन्धो परिव्वए, 33 तथा तत्थिय इयरेहि कुलेहि सुद्धेसणाए सव्वेसणाए, ३४ 'आदिस्समाणे कविक्कएसु' ५ सूत्रों में तथा 'सेभिक्खू परिक्कमेज्ज वा चिट्टेज्ज वा ३६ सूत्र में निर्दिष्ट भिक्षाचर्या को मूलभूत आधार मानते हु द्वितीय श्रुत स्कन्ध में पिण्डेषणा अध्ययन का विस्तार से विचार किया गया है । इस तरह 'वत्थं पडिग्गहं, कंबलं पायपुच्छणं ओग्गहं च' ३७ तथा 'सेभिक्खू परिक्क मेज्ज - — JORDAANA - से" अहेसणिज्जाइं वत्थाई , 3 आदि सूत्रों में द्वितीय श्रुतस्कन्ध के सम्पूर्ण वस्त्रेषणा, पात्रषणा, अवग्रह प्रतिमा, शय्यैषणा अध्ययन का मूल विद्यमान है । जाज्जा, मुनि को यह नहीं कहना चाहिए कि यह आहार अच्छा बना है । यह कल्याणकारी और अवश्यकरणीय है । यदि कुछ कहना पड़े तो इतना ही कहे कि यह आरम्भ से बना है । यह सावद्य कार्य है । यह वर्णादि से युक्त है । इसी तरह शब्द रूपादि को भी अच्छा बुरा नहीं कहना चाहिए अपितु इनके विषय में निर्दोष एवं यथार्थ ही बोले । ४० कषायपूर्ण या अविवेकपूर्ण एवं शीघ्रता में असत्य भाषण का होना सम्भव है अतः संयमनिष्ठ मुनि को क्रोध - मान, माया और लोभ का त्याग करके सोच-विचार कर धीरे-धीरे बोलना चाहिए । इस तरह एकान्त निरवद्य, हित- मित, असंदिग्ध, संयत एवं यथार्थं भाषा का व्यवहार करना चाहिए । यही मुनि का भाषा समिति के रूप में सम्यक् आचार है । ४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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