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२१६ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन (३) एषणा समिति :
एषणा का अर्थ है खोज या गवेषणा। इस प्रकार गवेषणा, ग्रहणैषणा और ग्रासैषणा सम्बन्धी आहार के ४७ दोषों का परित्याग कर सावधानीपूर्वक निर्दोष एवं प्रासूक आहारादि ग्रहण करना एषणा समिति है । अतः श्रमण-श्रमणी को अहिंसा व्रत की रक्षा के लिये एषणा सम्बन्धी दोषों से बचना चाहिये। ___ आध्यात्मिक सिद्धि के लिये शरीर प्रमुख साधन है और शरीर को स्वस्थ एवं साधना के लिये सक्षम रखने के लिये आहार का स्थान महत्त्वपूर्ण है । संयम साधना के लिये आहार अनिवार्य है। आचारांग में श्रमण-श्रमणी जीवन के लिये संयमित विहार के साथ ही शुद्ध, सात्विक एवं परिमित आहार का विशेष विधान किया गया है । अशुद्ध, तामसिक एवं सदोष आहार मानसिक विकृति पैदा करता है। आचारांग में इसीलिए श्रमण-श्रमणी के लिए सदोष, स्वादिष्ट ( गरिष्ठ ) आहार ग्रहण करने का स्पष्ट शब्दों में निषेध है। उपनिषदों में कहा है कि आहारशुद्धौ सत्वशुद्धिः सत्वशुद्धौ ध्रुवास्मृतिः।४२ आहार की शुद्धि से सत्व शुद्धि होती है । सत्व की शुद्धि से बुद्धि निर्मल बनती है, स्मृति ताजा बनी रहती है और स्मृति के लाभ से मनुष्य की सब ग्रंथियाँ खुल जाती हैं।
धर्माचरण एवं तप-संयम की आराधना के लिये शारीरिक स्थिति होनी चाहिए । परन्तु इस सन्दर्भ में आचारांग एक महत्त्वपूर्ण बात कहता है कि निर्दोष एवं एषणीय भोजन भी स्वाद ( रस ) लोलुपता की वृद्धि के लिये नहीं होना चाहिए। सूत्रकार कहता है कि श्रमण-श्रमणी आहार करते समय स्वाद-लोलुपता से ग्रास को बाएँ जबड़े ( कपोल ) से दाहिने जबड़े में न ले जाये। इसी तरह स्वाद लेते हुए उसे दाहिने जबड़े से बाएँ जबड़े में न ले जाये अपितु अस्वाद-वृत्ति से आहार ग्रहण करे। ४३
आहार की भांति ही वस्त्र-पात्र, आवासादि की गवेषणा करते समय भी उद्गमादि एषणा-सम्बन्धी सभी दोषों को टालने का विधान है। इन पर यहाँ क्रमशः विचार किया जाता है। सदोष आहार:
(१) द्वीन्द्रियादि प्राणियों से संसक्त, शालि-चावल, बीज, हरी सब्जी से युक्त मिश्रित अथवा सचित्त जल से गीला, सचित्त मिट्टी से अवगुंठित अशनादि आहार ।
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