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________________ २१४ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन श्रमण-श्रमणी को ऐसी भाषा बोलना निषिद्ध है(१) क्रोध-मान-माया और लोभ के वशीभूत होकर किसी के मर्म को भेदने वाली कठोर एवं सावद्यभाषा। (२) निश्चयात्मक भाषा यथा-कल अवश्य वर्षा होगी अथवा नहीं होगी, भिक्षार्थ गया हुआ साधु भिक्षा लेकर आयेगा अथवा नहीं आयेगा आदि। इसी तरह वचन, लिंग और काल सम्बन्धी वचन आदि को भलीभाँति जानकर सम्भाषण करे। जिस विषय में जब तक वस्तु तत्त्व का पूर्णतया निर्णय न हो जाए तब तक वह निश्चयात्मक एवं असंदिग्ध भाषा का प्रयोग न करे क्योंकि परिस्थितिवश वह कार्य उस रूप में नहीं हआ तो सत्य महाव्रत में दोष लगेगा।२७ मुनि को शास्त्र-विरुद्ध अयथार्थ भाषा का कदापि प्रयोग नहीं करना चाहिए। यथा-आकाश, बादल, बिजली आदि को देव कहकर सम्बोधित नहीं करना चाहिए । २८ भाषा के उक्त चार प्रकारों में से असत्य और मिश्रवचन का बिल्कूल प्रयोग न किया जाय । केवल सत्य और व्यवहार वचन ही साधक के लिए उपयुक्त हैं। यदि सत्य वचन भी सावध, कठोर, कर्कश, निष्ठुर, कर्म-बन्धकारी, छेदन-भेदन, परिताप एवं उपद्रवकारी, जीवोपघातक हो तो मुनि को कदापि नहीं बोलना चाहिए ।२९ विवेकपूर्ण निर्दोष वचन ही बोलना चाहिए अन्यथा मौन रहना चाहिए । किसी पुरुष अथवा स्त्री को बुलाते समय उनके नहीं सुनने पर उन्हें हे गोलक ! हे मूर्ख ! हे कपटी ! हे मृषावादो ! आदि अपमानपूर्ण, तुच्छ सम्बोधन नहीं करना चाहिए। क्योंकि ऐसी भाषा बोलने से सुनने वालों को ठेस लगती है, आघात लगता है। यदि कभी किसी को बुलाना आवश्यक हो तो उसे हे आयुष्मन् ! हे उपासक ! हे धर्मप्रिय ! इत्यादि मधुर और प्रिय शब्दों का सम्बोधन करना चाहिए ।30 यदि कोई व्यक्ति कठिन रोग से पीड़ित हो अथवा जिनके हाथ-पैर, कान, नाक आदि अवयव कटे हुए हों, खण्डित हों, गलित हों तो संयमशील मुनि उनके प्रति मर्मभेदी चुभनेवाली भाषा का प्रयोग न करे । यथा-हे गंडी ! हे कुष्ठी । हे मधुमेही ! आदि उनका नाम लेकर बुलाने से उनके मन में आघात पहुँचता है। वे क्रुद्ध भी हो सकते हैं। अतः भाषा समिति के साधक को ऐसी भाषा का उपयोग नहीं करना चाहिए । परन्तु यदि किसी व्यक्ति में कोई विशिष्ट गुण हो तो मुनि उसे उस गुण से यथा-हे तेजस्वी ! हे ओजस्त्री ! हे यशस्वी ! इत्यादि सम्बोधनों से पुकार सकता है।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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