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श्रमणाचार : २१३ भावना न रखे । इसी तरह चोर के वस्त्र पात्रादि छीन लेने, फोड़ देने, या उनके द्वारा मार-पीट करने पर भी मुनि समाधि भाव न छोड़े और गाँव में पहुँचने पर भी उनके सम्बन्ध में किसी से कुछ भी न कहे, यही श्रमण का समग्र आचार है । 23 साधक कभी भयग्रस्त नहीं होता । भय तो उसी के मन में पनपता है, जिसकी साधना या अहिंसा में अभी पूर्णता नहीं आई है। जितने जितने अंश में जीवन में अहिंसा ( नैतिक साधना ) का विकास होता जाता है, उतने अंश में भय दूर होता जाता है और जब जीवन में अहिंसा ओत-प्रोत हो जाती है तो भय पूर्णतः मिट जाता है । इस प्रकार श्रमण को ईर्यासमिति सम्बन्धी सम्पूर्ण विवेचना में अहिंसा की भावना सन्निहित है । वैदिक २४ एवं बौद्ध परम्परा २५ में भी भिक्षुओं के प्रवास के सम्बन्ध में इस तरह चलने का विधान पाया जाता है । (२) भाषा समिति :
भाषा चार प्रकार की होती है - सत्यभाषा, असत्यभाषा, मिश्र - भाषा और असत्यामृषा या व्यवहार भाषा । असत्य और मिश्रभाषा का त्याग कर सत्य और असत्यामृषा ( व्यवहार भाषा ) भाषा को विशुद्ध रूप से बोलना भाषा समिति है अर्थात् पापमय और सावद्य वचन का त्याग कर संयत, प्रिय और पापरहित वाणी का प्रयोग करना हो भाषा समिति है | सावद्य व सदोष वचन बोलने वाला निर्ग्रन्थ नहीं है । सदोष भाषा का परित्यागी व्यक्ति हो मुनि कहा जाता है, क्योंकि सदोष संभाषण से जीव- हिंसा होती है । अतः श्रमण को बोलते समय भाषा के सभी दोषों का परित्याग कर विवेकपूर्ण वाणी का व्यवहार करना चाहिए । २६
प्रत्येक व्यक्ति आवश्यकतानुसार अपने विचारों या भावों को भाषा द्वारा व्यक्त करता है । आचारांग में श्रमण श्रमणी के लिए सम्भाषण की विधि-निषेध रूप अनेक मर्यादाएँ निरूपित हैं । श्रमण को कैसी भाषा बोलनी चाहिए ? कैसी भाषा नहीं बोलनी चाहिए आदि बातों पर यहाँ विचार कर लेना उचित है । आचारांग के 'आइक्खे विमए किट्टे वियवी ' तथा 'अणुवीय भिक्खू धम्ममा इक्खमान' सूत्र के आधार पर द्वितीय श्रुतस्कन्ध के भाषैषणा नामक अध्ययन में विस्तार से विवेचन किया गया है ।
आचारांग के अनुसार मुनि को शब्दों तथा भावों का ज्ञान होना चाहिए, जिससे वह बोलते समय भावों को स्पष्ट एवं शुद्ध रूप से व्यक्त कर सके । वचन, विभक्ति-लिंग आदि व्याकरण सम्बन्धी ज्ञान भी आवश्यक है ।
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