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अष्टम अध्याय श्रमणाचार
सवाचार का महत्व : ___ आचारांग सूत्र के टीकाकार ने ज्ञान और चारित्र की चर्चा करते हुए चारित्र ( सदाचार ) की प्रधानता प्रतिपादित की है।' यू तो सम्यक् दर्शन और सम्यग्ज्ञान भी मोक्ष के कारणभूत हैं, किन्तु मुक्ति का सक्रिय कारण चारित्र ही है। ज्ञान और चारित्र में भेद-रेखा खींचना प्रायः असम्भव है, क्योंकि दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं अर्थात् ज्ञान के बिना चारित्र नहीं और चारित्र के बिना ज्ञान नहीं । ज्ञान की पूर्णता में चारित्र समाहित हो जाता है और तभी मुक्ति प्राप्त होती है। इससे सदाचार का मूल्य सहज ही समझा जा सकता है। किन्तु सदाचार क्या है ? आत्म स्वरूप में रमण करना और जिनकथित विधि-निषेध रूप उपदेशों पर पूर्ण आस्था रखते हुए भलीभाँति उन्हीं के अनुरूप आचरण करना हो सदाचार है। इस दृष्टि से सदाचार दो प्रकार का है-निश्चय आचार और व्यवहार आचार ।
जब आत्मा के द्वारा आत्मा में रमण करता है तब निश्चय आचार होता है। इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए आचारांग में कहा है
_ 'जे अणण्णदंसी से अणण्णरामे
जे अणण्णरामे से अणण्णदंसी । जो अनन्य ( आत्मा) को देखता है वह आत्मा में रमण करता है, जो आत्मा में रमण करता है वह आत्मा को देखता है। इस प्रकार आत्म-रमण और आत्म-दर्शन का यह क्रम निरन्तर चलता रहता है। किन्तु जो आचार में रमण नहीं करते वे स्वयं आरम्भ करते हुए आचार ( संयम ) का उपदेश देते हैं। वे स्वच्छन्दाचारी और विषयासक्त हैं।
और नई-नई आसक्तियों को उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार स्वस्वरूप में रमणतारूप नैश्चयिक आचार किसी दूसरे पर आधारित नहीं होता, वह तो स्वाश्रित है । इसके विपरीत असत् प्रवृत्तियों से निवृत्ति और सत् क्रियाओं में प्रवृत्ति करना व्यवहार-चारित्र है। पंचमहाव्रतों का पालन समिति-गुप्तिरूप आचरण, परीषह-सहन आदि सब व्यवहार चारित्र
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