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श्रमणाचार : २०३
है, जो कि नैश्चयिक आचार ( साध्य ) को प्राप्ति में परम सहायक है।
प्राचीन काल से ही अध्यात्म-साधना में सदाचार या चारित्र का गौरवपूर्ण स्थान रहा है । वास्तव में यह सदाचार नैतिक जीवन का वह मूल्य है जिसके द्वारा मनुष्य नैतिक दृष्टि से उच्च से उच्चतर सोपान की ओर अग्रसर होता जाता है और अन्ततः इस मूल्य निधि से उसे परम लक्ष्य की प्राप्ति हो जाती है । श्रमण की व्याख्या :
श्रमण-संस्कृति आचार-प्रधान संस्कृति है। 'आचार' ही श्रमणसंस्कृति की मूलभूत आत्मा है और श्रमण-संस्कृति का मूल आधार है 'श्रमण' । आचारांग आदि प्राचीन जैनागमों में अनेक स्थानों पर श्रमण के लिए 'समण', 'सुसमण' आदि शब्द व्यवहत हुए हैं। यहाँ यह जान लेना भी नितान्त आवश्यक है कि 'श्रमण' किसे कहें और उसकी व्याख्या क्या है ?
'श्रम तपसि खेदे च' अर्थात् तप और खेद ( परिश्रम ) अर्थवादी 'श्रम्' धातु से 'ल्यू' प्रत्यय लगकर 'श्रमण' शब्द बना है। 'श्रमण' का मूलभूत प्राकृत रूप 'समण' है। इसका संस्कृत रूपान्तर 'श्रमण', 'समन' और शमन तथा 'श्रम', 'सम' और 'शम' है। श्रमण का अर्थ है-श्रम करना । 'श्रमण' संस्कृति का मुख्य उद्देश्य है, अपने ही श्रम द्वारा स्वयं का विकास । मनुष्य अपने उत्कर्षापकर्ष के लिये स्वयं उत्तरदायी है। आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में जो व्यक्ति स्वयं के श्रम से, कर्म-बन्धन को तोड़ता है अथवा स्वयं को कर्म-मुक्त करता है, वह श्रमण है । अपनी मुक्ति के लिए श्रमण स्व के अतिरिक्त अन्य किसी से कोई अपेक्षा नहीं रखता, उसका एकमात्र आदर्श है कठोर साधना अथवा श्रम । प्रकारान्तर से, जो अपनी पापवृत्तियों को शान्त करता है, वह 'शमन' कहा जाता है । जो प्राणि-मात्र को आत्मतुल्य समझकर किसी को कष्ट नहीं पहुंचाता है, सर्वत्र सम रहता है, वह 'समन' है। आचारांग में 'सुश्रमण' की परिभाषा करते हुए लिखा है
उवेहमाणोकुसलेहिं संवसे, अकंतदुक्खा तसथावरादुही
अलूसए सव्वसहे महामुणी, तहाहि से सुस्समणे समाहिए । जो परीषहों को सहता हुआ अथवा मध्यस्थभाव का अवलम्बन करता हुआ साधना मार्ग में कुशल जनों के साथ रहता है, जो सभी को सुख प्रिय है दुःख अप्रिय है-यह समझ कर त्रस और स्थावर किसी भी
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