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पंचमहावतों का नैतिक दर्शन : १९३ प्रकार, निर्ग्रन्थ मुनि कृत, कारित, अनुमोदित तथा मन, वचन और काय से जीवन भर मैथुन का त्यागी होता है। मैथुन हिंसा का कारण है। इससे जीवों का घात होता है । १२६ गांधी जी के अनुसार ब्रह्मचर्य का अर्थ है-'मन-वचन और काया से समस्त इन्द्रियों का संयम ।१२७
इस प्रकार व्रत की साधना को सफलता एवं सम्यक्तया इसके पालन के लिए आचारांगकार ने पाँच प्रकार की भावनाओं का उपदेश दिया है। साधु को निम्नोक्त पाँच प्रकार की भावनाओं का कठोरता के साथ पालन करना नितान्त आवश्यक है। जिस प्रकार खेत की रक्षा के लिए बाड़ की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए पंच भावनारूप बाड़ की आवश्यकता है। ये पाँच भावनाएँ इस प्रकार हैं-(१) स्त्री सम्बन्धी काम-कथा न करे, (२) विकार दृष्टि से स्त्री के अंग-प्रत्यंगों का अवलोकन न करे, (३) पूर्वानुभूत काम क्रीड़ा का स्मरण न करे, (४) मात्रा से अधिक एवं कामवर्धक भोजन न करे, और (५) ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ स्त्री-पशु एवं नपुंसक आदि से युक्त स्थान में न रहे । ये सभी काम-वासना के हेतु हैं । अतः निर्ग्रन्थ को इनसे बचना चाहिये । यदि वह ऐसा नहीं करता है, तो धर्म से च्युत हो जाता है ।१२८ स्थानांग,१२९ उत्तराध्ययन130 आदि जैनागमों में भी ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए इन्हीं उपायों का विविध प्रकार से उल्लेख है और उन्हें समाधि स्थान के नाम से कहा गया है । मनुस्मृति और गौतमसूत्र'३२ में भी ब्रह्मचारी को इन्द्रिय जन्य सुखों एवं आनन्ददायक वस्तुओं से दूर रहने को कहा गया है। ___ आचारांग में ब्रह्मचर्य-पालन की दृष्टि से स्पष्ट निर्देश मिलता है । जैसे- ब्रह्मचारी स्त्री-सम्बन्धी काम-कथा न करे, उन्हें वासनायुक्त दृष्टि से न देखे, परस्पर कामुक भावों का प्रसारण न करे, उनके प्रति ममत्व न करे, उनके चित्त को आकृष्ट करने के लिए शरीर की विभूषा या साज-सज्जा न करे, वचन-गुप्ति का पालन करे और मन को संवृत रखकर पाप-कर्म से सदा दूर रहे। इस प्रकार वह ब्रह्मचर्य की आराधना १33 करे, क्योंकि साधक के सुखशील होने पर तथा उपर्युक्त सभी नियमों का पालन न करने पर काम-वासना उभरती है। इस तथ्य से सूत्रकार सम्यक् परिचित थे। अतः वासना से उत्पीडित मुनि को काम निवारण के छः उपाय बताते हुए उन्होंने कहा है कि 'मुनि को नीरस भोजन करना चाहिए, उणोदरी तप ( कम-खाना) करना चाहिए,
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