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________________ १९४ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन कायोत्सर्ग करना चाहिए अर्थात् विविध प्रकार के आसन करना चाहिए, ग्रामानुग्राम विहार करना चाहिए अथवा आहार का परित्याग कर देना चाहिए तथा स्त्रियों के प्रति आकृष्ट होने वाले मन को सर्वथा विमुख रखना चाहिए । १३४ मतलब यह कि उक्त उपायों में से जिस साधक को जो उपाय अनुकूल हो, उसी का अभ्यास करना चाहिए । शीलांकाचार्य ने ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए यहाँ तक कह दिया है कि 'पर्यन्ते आहारमपि व्यवच्छिन्द्याद् अपि पातं विदध्यात्, अप्युद्बन्धनं कुर्यात्, न च स्त्रीषु मनः कुर्यादिति' अर्थात् अन्य सभी उपायों के असफल होने पर मुनि जीवन भर के लिये सर्वथा आहार का त्याग कर दे, ऊपर से गिर जाय या फाँसी लगा ले किन्तु मन को स्त्रियों में न जाने दे । १३५ ब्रह्मचर्य को खण्डित न होने दे । वस्तुतः ब्रह्मचर्यं वह अग्नि है, जिसमें तपकर आत्मा परिशुद्ध बन जाती है । ब्रह्मचर्य की साधना देह और आत्मा दोनों को पुष्ट करती है । अहिंसा, सत्य आदि तो आत्मबल को बढ़ाते हैं, परन्तु ब्रह्मचर्य की साधना तो एक साथ दोनों ( शरीर आत्मा ) को अपरिमित बल प्रदान करती है । यही कारण है कि प्रश्नव्याकरण में ब्रह्मचर्य को उत्तम तप, नियम, ज्ञान, दर्शन १३६ - आदि का मूल बताया गया है तथा कहा है कि जिसने अपने जीवन में एक ब्रह्मचर्य की उपासना की है, उसने सभी उत्तमोत्तम तपों की आराधना की है - ऐसा समझना चाहिये । अतः निपुण साधक को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये । १३७ महर्षि पतंजलि कहते हैं कि ब्रह्मचर्य स्थिर होने से वीर्यं -लाभ होता है ।' ब्रह्मचर्य को श्रेष्ठ तप कहा है । १३९ उत्तराध्ययन में ब्रह्मचर्यं को अन्य सभी व्रतों की अपेक्षा दुष्कर बताया है तथा उसकी महत्ता को प्रतिपादिन करते हुए कहा गया है कि दुष्कर व्रत की आराधना करने वाले ब्रह्मचारी को देव-दानव गन्धर्व आदि सभी नमस्कार ४० करते हैं । उसमें 'एस धम्मे सुद्धे निच्चे' कहकर विश्व में उसके स्थायित्व को प्रतिपादित किया गया है । १४१ इसी तरह योगशास्त्र, १४२ ज्ञानार्णव, १४३ अथर्ववेद, १४४ आदि ग्रन्थों में भी इसकी महत्ता का वर्णन मिलता है । ૧૩૮ इस ब्रह्मचर्यव्रत ने पाश्चात्य विद्वानों को भी आकर्षित किया है, तभी तो डा० फनॅण्डो वेल्लिनी फिलिप ने भी कहा है। भगवान महावीर के व्यक्तित्व में सर्व प्रधान गुण मेरी दृष्टि में अनन्तवीर्य रहा है । उसी के कारण यह प्रसिद्ध तीर्थंकर अपने समकालीन मत प्रवर्त्तकों का रास्ता काटकर आगे बढ़ने में सफल हुआ । १४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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