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१९२ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्पर न उसे उके स्वामी की आज्ञा के बिना स्वयं ग्रहण नहीं करना, दूसरों से ग्रहण नहीं करवाना और ग्रहण करने वाले व्यक्ति का समर्थन नहीं करना ही अस्तेयव्रत है । १२२ इस व्रत की शुद्धि के लिए आचारांग में पाँच भावनाएँ वर्णित हैं । वे निम्नोक्त हैं
(१) सोच-विचार कर मितावग्रह की याचना करना, (२) गुरु आदि की अनुमति से आहार जल ग्रहण करना, (३) क्षेत्र और काल की मर्यादा को ध्यान में रखकर परिमित वस्तु स्वीकार करना, (४) बार-बार आज्ञा ग्रहण करना और (५) साधार्मिकों से परिमित पदार्थों की आज्ञा लेना। यदि वह निर्ग्रन्थ ऐसा नहीं करता है तो उसे चौर्य कर्म का दोष लगता है। उपयुक्त बातों का आचरण करने से, हिंसा से बचने और अहिंसा के परिपालन में पूर्ण सहायता मिलती है । १२3 आचारांग के द्वितीय श्रुत स्कन्ध के सप्तम अध्ययन में भो अस्तेय व्रत की चर्चा है ।१२४ ।। __ इस सम्बन्ध में धर्मशास्त्र साधक को यहाँ तक सतर्क करते हैं कि यदि कोई साधक वस्तुतः तपस्वी, ज्ञानी अथवा उत्कृष्ट आचारादि से सम्पन्न नहीं है और दूसरा व्यक्ति उसे वैसा कहता है, तो साधक को निःसंकोच कह देना चाहिए कि आप मुझे जैसा समझ रहे हैं, वास्तव में मैं वैसा हूँ नहीं । ऐसा न करके मौन धारण कर लेना और मुफ्त में प्राप्त होने वाले मान, सम्मान, प्रतिष्ठा एवं प्रशंसा प्राप्त कर लेना भी चोरी के अन्तर्गत ही माना जायगा । अतः साधक-जीवन के लिए यह अनिवार्य है कि वह सूक्ष्मातिसूक्ष्म चौर्यकर्म के पाप से बचे और समस्त दुःखों से मुक्त होनेके लिए इस व्रत का सम्यक्तया पालन करे । वैदिक ग्रन्थों में भी इस व्रत का पालन करने वालों को व्रत-उपलब्धि बतलाई गई है । १२५ ब्रह्मचर्य महावत:
भारतीय संस्कृति में ब्रह्मचर्य की साधना को अन्य सभी साधनाओं की अपेक्षा विशेष महत्त्व प्राप्त है। वेदों एवं उपनिषदों में ब्रह्मचर्य की महत्ता का वर्णन प्रभावशाली शब्दों में व्यक्त हुआ है । बौद्ध साहित्य के सम्बन्ध में विस्तार पूर्वक विवेचन मिलता है। जैनागमों में ब्रह्मचर्य की गम्भीर एवं अति सूक्ष्म विवेचना उपलब्ध है। यही नहीं, आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध का दूसरा नाम ही 'ब्रह्मचर्य' है । अतः नैतिक जीवन की दृष्टि से ब्रह्मचर्य व्रत की प्रशंसा जितनी अधिक की जाय उतनी ही थोड़ी है क्योंकि नैतिकता का निखार भी व्रत से सम्भव है।
मन-वचन और काया से देव, मनुष्य एवं तिर्यन्च शरीर सम्बन्धी सब प्रकार के मैथुन-सेवन का परित्याग करना ही ब्रह्मचर्य है । इस
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