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पंचमहाव्रतों का नैतिक दर्शन : १७५ ईर्यापथिकी प्रतिक्रमण करना आवश्यक है, अन्यथा प्रतिक्रमण करने की कोई आवश्यकता नहीं है ।३१
वास्तव में, हिंसा का मूल संकल्प में है । जब किसी के प्राण-वियोजन में मन का दुःसंकल्प जुड़ता है, राग-द्वेष की भावना प्रेरक बनती है तब हिंसा होती है। उपर्युक्त कथन का फलितार्थ यह है कि कषाय और प्रमाद ही हिंसा का मूल आधार है। जो साधक अप्रमत्त है, फिर भी, यदि उसके कार्य-स्पर्श से हिंसा हो जाती है तो वह केवल द्रव्य-हिंसा है, भाव-हिंसा नहीं। वह द्रव्य-हिंसा ( प्राण-नाश ) होते हुए भी हिंसा नहीं मानी जाती है । यहाँ प्रश्न हो सकता है कि पूरी सावधानी रखते हुए भी यदि अकस्मात् किसी जीव का प्राण-घात हो जाये तो क्या उसे कर्म-बन्ध होगा या हिंसा का दोष लगेगा? इस सम्बन्ध में आचारांग में दो प्रकार की क्रियाओं का विचार हुआ है--ईप्रित्यय या ईर्यापथिकी और साम्परायिक । कर्मास्रव इन दोनों प्रकार की क्रियाओं से होता३७ है-प्रमादभाव से की जाने वाली साम्परायिक क्रिया से तीव्र बन्ध होता है और भवभ्रमण भी बढ़ता है जबकि कषाय रहित होकर अप्रमत्त भाव से की जाने वाली ईपिथिकी क्रिया से अत्यल्प कर्मबन्ध होता है। __आचारांग में कहा गया है कि ईर्यापथिकी और साम्परायिक क्रियाओं में प्राण-वध की क्रिया समान होने पर भी कर्म-बन्धन एक जैसा नहीं होता, अपितु व्यक्ति की तीव्र-मंद कषाय और भावधारा के अनुरूप बंध होता है। आचारांग के अनुसार यत्नपूर्वक गमन करते हुए ( गुणसमित ) अप्रमादी मुनि के शरीर के स्पर्श से प्राणी परिताप पाते हैं, ग्लानि पाते हैं अथवा मर जाते हैं। वह भिक्षु उस कर्म-फल को वर्तमान जीवन में वेदन करके क्षय कर देता है। प्रमत्त मुनि के द्वारा होने वाली वह हिंसा तीव्र कर्मबन्ध का कारण होती है तथा भव भ्रमण को बढ़ाती है।" शीलांककृत टीका में इस तथ्य को अधिक स्पष्ट किया गया है। आचार्य शोलांक ने लिखा है--शैलेशी दशा प्राप्त ( अयोगी ) मुनि के काय-स्पर्श से प्राणी के प्राण-वियोजन होने पर भी कर्म-बन्ध नहीं होता, क्योंकि वहाँ बन्धन के उपादान कारण ( मन-वचन और काय ) योग का अभाव है। मन-वचन और काया की प्रवृत्ति वाले ( ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थानवर्ती ) वीतरागी मुनि को मात्र दो समय की स्थिति वाला कर्मबन्ध होता है। अप्रमत्त मुनि के जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः अन्तः कोटाकोटि स्थिति का कर्मबन्ध होता है। विधिपूर्वक प्रवृत्ति करते हुए प्रमत्त मुनि से यदि अकस्मात् प्राणि-वध हो जाता
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