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________________ १७६ : आचाराङ्ग का नोतिशास्त्रीय अध्ययन है तो उसे जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः अन्तः कोटाकोटि स्थिति का कर्मबन्ध होता है और वह उसे उसो भव में अनुभव करके क्षीण कर देता है, किन्तु असावधानी पूर्वक प्रवृत्ति करते हुए प्रमत्त मुनि से जो हिंसा हो जाती है तज्जन्य कर्मबन्ध प्रायश्चित्त आदि सम्यक् अनुष्ठान के द्वारा ही क्षीण होता है।३९ भगवतीसूत्र में कहा है कि विवेकपूर्वक गमन-क्रिया करते समय यदि भिक्ष के पैर के नीचे कोई भी जीव आकर या दबकर मर जाए तब भी उस भिक्षु को ईर्यापथिको क्रिया (पुण्यप्रकृति ) का बन्ध होता है, साम्परायिक क्रिया का बन्ध नहीं होता है।४० ओपनियुक्ति' और मूलाचार४२ आदि ग्रन्थों में भी इन्हीं विचारों की पुष्टि की गई है कि यत्नपूर्वक गमन करते हुए भी यदि कभी हिंसा हो जाती है तो वह पाप-बन्ध का कारण नहीं होती। इस प्रकार टीकाकारों ने भाव हिंसा को ही प्रमुख माना है, किन्तु द्रव्य-हिंसा और भावहिंसा के सम्बन्ध में आचारांग का स्पष्ट दृष्टिकोण यह है कि क्रिया चाहे ईपिथिकी हो, या साम्परायिक, दोनों ही आदान-स्रोत हैं, इसीलिए उनसे निवृत्त होने का उपदेश है।४३ द्रव्य या भाव कैसी भी हिंसा क्यों न हो, वह नैतिक आचरण का नियम नहीं है। यद्यपि संकल्पजन्य हिंसा ( भाव-हिंसा ) निकृष्टतम है किन्तु द्रव्य-हिंसा की उपेक्षा भी उचित नहीं है। __ कषाय के अभाव में ईपिथिकी क्रिया से होने वाली हिंसा भी हिंसा है और उससे कर्म-बन्ध होता है । उस हिंसा से चाहे दो समय की स्थिति वाला कर्म-बन्ध ही क्यों न हो, किन्तु वह भी कर्मों के आगमन का स्रोत है। आचारांग का सर्वोपरि उपदेश तो पूर्ण अहिंसा का पालन है, जहाँ न तो हिंसा की वृत्ति हो और न हिंसा का कृत्य हो। अहिंसा की यह पूर्णता निष्कम्प शैलेषी अवस्था में प्राप्त होती है। हिंसा के विभिन्न कारण : सामान्यतया यह देखा जाता है कि कोई भी व्यक्ति किसी न किस । प्रेरणा से प्रेरित होकर ही कर्म में संलग्न होता है। आचारांग में यह बताया गया है कि व्यक्ति किन कारणों से हिंसा में प्रवृत्त होता है। उसके अनेक कारण बताए गए हैं। आचारांगकार का कहना है कि अज्ञानी और विषयातुर मनुष्य निम्न हेतुओं से हिंसा करते हैं कुछ लोग 'जोवो जीवस्य भोजनम्' यह मानकर अपने इस क्षणिक जोवन के लिए, प्रशंसा और यश के लिए, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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