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________________ आचारांग का मुक्तिमार्ग : १६५ का सम्बन्ध व्यक्ति के आन्तरिक मनोभावों से है । यह आत्मा का ही एक परिणाम है। आध्यात्मिक पूर्णता का मूलाधार यह निश्चय चारित्र ही है । आत्मा का जो अन्तराभिमुखी रहने या आत्म-रमणता का स्वभाव है, यहो निश्चय चारित्र है। आचारांग में वस्तुतः इसे ही 'अणण्णारामी' या स्वात्मरमणता की स्थिति कहा गया है। इसमें बाह्याभिमुखी इन्द्रिय और मन को समेट कर या आत्मदर्शन की दिशा में लगाकर स्वस्वरूप (समता) को उपलब्धि का प्रयास किया जाता है। समता से आत्मा को विप्रसादित किया जाता है । आचारांग के अनुसार निश्चय दृष्टि से सम्यक चारित्र का वास्तविक अर्थ स्वस्वरूप या समता की उपलब्धि है। वैयक्तिक जीवन में स्वस्वरूप समता की उपलब्धि हो चारित्र का नैश्चयिक पक्ष है और यह समत्व रूप नैश्चयिक चारित्र ही मुक्ति-महल का अन्तिम सोपान माना गया है । आचारांग के अनुसार आध्यात्मिक उत्क्रान्ति इसी नैश्चयिक चारित्र या आचरण के आन्तरिक पक्ष पर अवलम्बित है। इस प्रकार आचारांग में अहिंसा, प्रज्ञा और समाधि दूसरे शब्दों में सम्यग्दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र ये मुक्ति-मार्ग की साधना के तीन अंग है। इन तीनों को समन्वित साधना से हो साध्य सिद्ध होता है। सन्दर्भ-सूची अध्याय ६ १. आचारांग, १/६/१. २. वही, १/४/४. ३. वही, १/५/६. ४. सूत्रकृतांग, १/१२/११. ५. आचारांग, १/६/५. ६. वही, १/३/२. ७. वही, १/३/२. ८. वही, १/३/२. ९. वही, १/६।५. १०. वही, १/५/३. ११. वहो, १/४/४, १/४/३, १/२/६. १२. वही, १/३/४. १३. वही, १/२/४. १४. वही, १/२/४. १५. वहो, १/५/६ १६. वही, १/२/४. १७. वही, १/२/४. १८. वही, १/५/५. १९. आचारांग, १/४/१ पर शीलांक टीका पत्रांक, १५८. २०. अभिधान राजेन्द्रकोश, खण्ड ४, पृ० २४, २५. २१. योगशास्त्र प्रकाश, ३/२. २२. नवतत्त्वदीपिका, गा• ५२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002111
Book TitleAcharanga ka Nitishastriya Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanshreeji
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Research, & Ethics
File Size13 MB
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