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१६४ : आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन स्मृति में कहा गया है कि 'अयं तु परमोधर्मः यद्योगेन आत्म-दर्शनम्' यही श्रेष्ठ धर्म है जिसके योग से आत्मदर्शन होता है। महाभारत, (शान्तिपर्व) में निर्देशित है कि 'आत्मज्ञानं परं ज्ञानं', गीता तो आत्मज्ञान के संबंध में कहती है कि 'यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ञातव्यमवशिष्यते' इस एक का ज्ञान हो जाने पर कुछ भी ज्ञातव्य नहीं रह जाता है । मनुस्मृति में कहा है 'सर्वेषामपि चैतेषामात्मज्ञानं परं स्मृतं तद्यग्रेय सर्वविद्यानां प्राप्यते ह्यमृतं ततः' अर्थात् सभी ज्ञानों में आत्मज्ञान ही उत्तम है वही उन सभी में प्रमुख है। इसके द्वारा परम (अमृत) पद को प्राप्त किया जाता है। शुक्रनीति०५ में कहा है कि इस आत्मविद्या के द्वारा सुख-दुःख, हर्ष-शोक या राग-द्वेष की प्रहाणि की जा सकती है । सम्यक् चारित्र : ___अध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में 'दर्शन' और 'ज्ञान' के बाद मुक्ति के लिए चारित्र (आचरण) परमावश्यक है। आचारांग की दृष्टि से चारित्र का एकमात्र उद्देश्य है, आत्मा को बन्धन से मुक्त कर, चरम एवं परम आदर्श मोक्ष प्राप्त करना। सम्यक् चारित्र का निश्चयात्मक अर्थ है, स्वस्वरूप में रमण करना। __ जैन दर्शन में चारित्र के दो रूप माने गए हैं-व्यवहार चारित्र (बाह्यचारित्र ) और निश्चय चारित्र ( आन्तर चारित्र ) । इन्हें क्रमशः द्रव्य-चारित्र और भावचारित्र भी कहा जाता है। आध्यात्मिक विकास के लिए उक्त दोनों प्रकार के चारित्र की साधना अपेक्षित है। आचाराङ्ग में दोनों का स्पष्ट नाम निर्देश तो नहीं मिलता है, किन्तु दोनों से सम्बन्धित तथ्यों का विवेचन अवश्य उपलब्ध है।
आचारांग में निश्चय चारित्र के रूप में 'समता' 'स्वस्वरूप रमणता' का विवेचन है और व्यवहार चारित्र के अन्तर्गत आचरण के बाह्य विधि-विधानों, नियमोपनियमों का निरूपण है। 'समिति', गुप्ति, 'परीषह-जय', 'इन्द्रिय-निग्रह', 'तप-ध्यान' 'समाधि', व्रत-नियम-संयम आदि जो साधन ( उपाय ) आन्तर या नैश्चयिक चारित्र के पोषक हैं, वे व्यवहार चारित्र के रूप में साधक के लिए उपादेय माने गए हैं । __ व्यवहारचारित्र, निश्चयचारित्र को प्राप्त करनेका साधन है । व्यवहार का सम्बन्ध बाह्य शुद्धि के कारणभूत आचार-नियमों से है। सामाजिक दृष्टिकोण से व्यवहार चारित्र ही प्रमुख है। इसका विस्तृत विवेचन श्रमणाचार सम्बन्धी अध्याय में किया गया है, जबकि निश्चय चारित्र
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